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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार - योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज्र और केसरी की कथा चरण कमल वाले एक मुनि को देखा ।। २६२२ ।। इससे अद्भुत आश्चर्यजनक उस मुनि को वंदन करके उनके सामने भूमि पर बैठा और मुनि ने भी 'यह योग्य है' ऐसा मानकर कहा कि - हे देवानुप्रिय ! अनादि संसार में परिभ्रमण करते जीवों को कोई भी इच्छित अर्थ सिद्ध नहीं होता है, परंतु यदि किसी भी रूप में वह श्री जिनेश्वर भगवान प्रति भक्ति, जीवों के प्रति मैत्री, गुरु के उपदेश में तृप्ति या तत्परता, सदाचार गुण से युक्त महात्माओं के प्रति प्रीति; धर्म श्रवण में बुद्धि, परोपकार में धन और परलोक के कार्यों की चिन्ता में मन को जोड़ दे तो निरुपम के पुण्य वाला उनका जन्म धर्म प्रधान बनता है। दुर्लभ मनुष्य जीवन मिलने पर भी धर्मरूपी गुण रहित मनुष्य जो दिन जाते हैं वे दिन निष्फल जाते हैं ऐसा समझ । जिन्होंने जन्म से ही इस तरह जन्म को धर्म गुण रहित निष्फल गँवाया है, उनको तो जन्म नहीं लेना वही श्रेष्ठ है अथवा जन्म लेने पर भी जंगल में पशु रूप में जीवन व्यतीत करें वही श्रेष्ठ है। जिन महानुभाव का भावी कल्याण नजदीक में ही होने वाला है उन्हींके ही दिन धर्म प्रवृत्ति से प्रधान होते हैं। वही धन्य है, वही पुण्य का भागीदार है और उसी का जीवन सफल है कि धर्म में उद्यमशील वाले हैं, जिनकी बुद्धि पापों में क्रीड़ा नहीं करती है। इस तरह मुनि की बात सुनकर अपने खराब चरित्र से वैरागी बनकर क्षोमिल ने शुद्ध भाव से दीक्षा स्वीकार कर ली ।। २६३२ ।।
इधर वह महात्मा वज्र मित्र की खोज करके उसके विरहाग्नि से पीड़ित शरीरवाला, दीन मन वाला, महामुसीबत से कुसुमस्थल नगर पहुँचा। वहाँ क्षोमिल के परलोक की विधि की और रत्नों को बेचकर प्रचुर समृद्धिशाली बना। फिर संसार सेवन करते उसे कालक्रम से अत्यन्त प्रशस्त दिन में पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम 'केसरी' रखा। कर्मोदय की अनुकूलता से अल्प प्रयत्न से भी बहुत धन सम्पत्ति एकत्रित हुई और स्वजन भी अनुकूल हुए। उसके बाद उसने चिंतन किया कि इस संसार में निश्चय लक्ष्मी बिना का मनुष्य अल्पमात्र वजन वाला अति हल्का काश वनस्पति के पुष्प के समान सर्व प्रकार से नीचता को प्राप्त करता है। इसलिए इसके बाद मुझे धन का रक्षण अपने जीव के समान करना चाहिए। क्योंकि इसके बिना निश्चय पुत्र भी पराभव करता है। ऐसा चिंतन करके पुत्र को भी दूर रखकर सारा धन का संग्रह आदरपूर्वक अपने हाथ से जमीन में गाढ़ा । फिर अन्य किसी दिन सूत्र अर्थ में पारंगत विचित्र तप से सूखे शरीर वाला वह क्षोमिल नामक मुनिवर अनियत विहार चर्या करते हुए वहाँ आया । वज्र ने उनको वंदन किया और महा मुश्किल से पहिचाना। अचानक उनके आगमन से आनंद के आँसू बहाते उसने सत्कारपूर्वक पूछा - हे भगवंत ! यह आपका वृत्तान्त क्या है ? पापी मैंने तो कई स्थानों पर आपकी खोज करने पर भी नहीं मिलने से आपकी मृत्यु हो गयी है ऐसी कल्पना की थी । तब स्वच्छ हृदय वाले मुनि ने अपनी बात को निष्कपट भाव से जैसे बनी थी वैसे विस्तारपूर्वक कही । उसे सुनकर वज्र परम विस्मय को प्राप्तकर और मुनि ने विविध युक्त वाले वचनों से उसे प्रतिबोध किया। इससे संसार प्रति उद्वेग होने से उसने सर्वज्ञ कथित स्वर्ग मोक्ष के हेतुभूत गृहस्थ धर्म को स्वीकार किया। उसे प्रयत्नपूर्वक निरतिचार पालन करने लगा और अत्यन्त भक्तिवाला वह उत्तम साधु वर्ग की प्रतिदिन सेवा करने लगा । वृद्धावस्था होने पर उसने अपने स्थान पर केसरी पुत्र को स्थापन किया और स्वयं श्रेष्ठ सविशेष धर्म कार्यों को करने लगा। परंतु लम्बे प्रयास से प्राप्त किया जमीन में गाढ़ा हुआ गुप्त निधान को पूछने पर भी मूर्च्छावश पुत्र को नहीं कहता है। अपने आयुष्य को अति अल्प जानता हुआ भी हमेशा 'आज कहूँगा, कल कहूँगा' ऐसा कहता है और प्राणियों के उपद्रव बिना निर्जीव घर के एक विभाग में आराधना की अभिलाषा से वह पौषध करने के द्वारा विविध परिकर्मणा अर्थात् चारित्र के अभ्यास को करता है। पुत्र भी पिता को अति वृद्ध समझकर बार-बार धन के विषय में पूछता है और पिता भी सामायिक में स्थिर रहता है।
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