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परिवन द्वार-योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज्र और केसरी की कथा
श्री संवेगरंगशाला
इससे इसको किस प्रकार ठगना? अथवा सर्व रत्नों को किस तरह ग्रहण करना? इस प्रकार एक ही विचार वाला वह उपायों को सोचने लगा। फिर एक दिन वज्र किसी गाँव गया, तब अंदर पत्थर के टुकड़े बाँधकर आठ रत्नों की गठरी समान दूसरी कृत्रिम गठरी बनाकर वज्र को देकर मैं रात्री में चला जाऊँगा, ऐसा विचारकर वह पापिष्ठ भय से जब दो गठरियों को शीघ्र बाँधने लगा, उसी समय वज्र वहाँ आ पहुँचा और उसने पूछा-हे मित्र! तूं यह क्या करता है? यह सुनकर क्या इसने मुझे देखा? ऐसे शंकाशील बना, फिर भी कपट करने में चतुर उसने कहाहे मित्र! कर्म की गति कुटिल के समान विचित्र है। विधाता के स्वच्छंदी विलास चित्त में भी नहीं आता है, इससे स्वप्न में भी नहीं दिखता, ऐसा कार्य भी अचानक दैव योग से हो जाता है। ऐसा सोच-विचारकर मैंने यह दो रत्न गठरी तैयार की है क्योंकि एक स्थान पर रखी हई किसी कारण से अपने हाथ से नष्ट हो जाती है और अलग-अलग हार्थों में हो तो विनाश नहीं होती? इसलिए अपनी चार रत्नों की गठरी तूं अपने हाथ में रख और दूसरी मैं रखू। ऐसा करने से अच्छी रक्षा होगी। ऐसा कहकर मोहमूढ़ हृदय वाले उसने भ्रम से सच्चे रत्नों की गठरी वज्र के हाथ में और दूसरी कृत्रिम अपने हाथ में रखी। उसके बाद दोनों वहीं सो गये, फिर जब राह देखते मुसीबत से मध्य रात्री हुई तब वह पत्थर की गठरी लेकर क्षोमिल जल्दी वहाँ से चल दिया ।।२६०६।।
सात योजन चलने के बाद जब रत्न की गठरी उसने खोली तब उसके अन्दर पूर्व में अपने हाथ से बाँधे हुए पत्थर के टुकड़े देखे। इससे वह बोला कि-दो धार वाली तलवार समान स्वच्छंदी, उच्छृखल और विलासी स्वभाव वाला हे पापी दैव! तूंने मेरे चिंतन से ऐसा विपरीत क्यों किया? निश्चय ही पूर्व जन्म में अनेक पाप करने से यह दुःखदायी बना है, यह कार्य मैंने अपने मित्र के लिए किया था परंतु सफल नहीं हुआ, वह तो मेरे लिए ही हुआ है। मैं मानता हूँ कि-शुद्ध स्वभाव वाले उस मित्र की ठगाई करने से वह पाप इस जन्म में ही निश्चय रूप में उदय आया है। ऐसा बोलते शोक के भयंकर भार से सर्वथा खिन्न और थके हुए शरीर वाला, क्षणभर तो किसी बंधन से बाँधा हो, या वज्रघात हुआ हो, ऐसा हो गया। फिर भूख से अत्यन्त पराभव प्राप्त करते, मार्ग में चलने से अत्यन्त थका हआ और भिक्षा के लिए घमने में अशक्त बना उसने एक घर में प्रवेश किया। उस घर की स्त्री को उसने कहा-हे माता! आशा रूपी सांकल से टिका हुआ मेरा प्राण जब तक है तब तक कुछ भी भोजन दो। अर्थात् यदि भोजन नहीं मिलेगा तो अब मैं जीता नहीं रहूँगा। उसके दीन वचनों को सुनने से दयालु बनी वह स्त्री उसे आदरपूर्वक भोजन देने लगी, लेकिन उसी समय उसका मालिक वहाँ आया और उसे भोजन करते देखकर क्रोध से लाल अति क्षुब्ध बनें नेत्रवाले उसने कहा-'अरे पापिनी! मैं घर से जाता हूँ, तब तूं ऐसे भाटों का पोषण करती है।' ऐसा पत्नी का तिरस्कारकर क्षोमिल को 'यह अनार्य कार्य करनेवाला व्यभिचारी है' ऐसा राजपुरुषों को बतलाकर उनको सौंप दिया। उसके बाद उन्होंने राजा को निवेदन किया कि 'यह जार है' इससे राजा ने भय से काँपते शरीर वाले और उदास मख वाले उसे वध करने का आदेश दिया। फिर अति जोर-जोर से रोते उसे राजपुरुष वध स्थान पर ले गये और कहा कि-अब तूं अपने इष्ट देव का स्मरण कर। ऐसा कहकर भय के वश टूटे-फूटे शब्दों से कुछ बोलते उसे एक वृक्ष के साथ लम्बी रस्सी से लटका दिया। फिर जीव जाने के पहले ही किसी भाग्य योग से वह बँधी हुई रस्सी टूट गयी और वह उसी समय नीचे गिर पड़ा। फिर कुछ क्षण में ही वन की ठण्डी हवा से आश्वासन प्राप्त करते मृत्यु के भयंकर भय से व्याकुल बना वह वहाँ से जल्दी भागा।
जब वह शीघ्रमेव भागते कुछ दूर निकल गया तब वहाँ महान् ताल वृक्ष के नीचे श्रेष्ठ वीणा और बांसुरी को भी जीतने वाली मधुर वाणी से स्वाध्याय करते और उनके श्रवण से आकर्षित हुए, हिरण के समूह से सेवित
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