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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार - योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज्र और केसरी की कथा
योग्य पुत्र को अधिकार नहीं देने पर वज्र और केसरी की कथा
कुसुमस्थल नगर में अपनी अति महान् ऋद्धि से कुबेर की भी सतत् हँसी करने वाला धनसार नामक उत्तम सेठ था। उसे सैंकड़ों मानता से प्रसन्नकर देवी ने दिया हुआ निरोगी शरीर वाला वज्र नामक एक पुत्र था। सर्व कला को पढ़ा हुआ और यौवन वय प्राप्त करने पर उसे पिता ने महेश्वर सेठ की पुत्री विनयवती कन्या के साथ विवाह करवाया था। फिर सर्व पदार्थ बिजली के प्रकाश समान, शरद ऋतु के बादल सदृश चंचल होने से और वासुदेव, चक्रवर्ती या इन्द्र आदि के बल को भी अगोचर बल को धारण करने वाले मृत्यु को नहीं रोक सकने से और आयुष्य कर्म का स्वभाव प्रतिक्षण अत्यन्त विनाशी होने से पुत्र को अपने स्थान पर स्थापनकर घर व्यवहार में जोड़कर धनसार आयुष्य पूर्ण किया। इससे पुत्र विलाप करने लगा कि - हे तात! हे परमवत्सल ! हे गुण समूह के घर! हे सेवकादि आश्रित वर्ग को संतोष देनेवाले! नगर निवासी लोगों के नेत्रों के समान हे पिताजी! आप कहाँ गये ? उत्तर तो दीजिए! हे तात! आपके वियोग रूपी वज्राग्नि से पीड़ित मेरी रक्षा करो! हे हृदय को सुख देने वाले ! हे हितेस्वी! आप अपने इस पुत्र की उपेक्षा क्यों करते हैं? हे तात! आप स्वर्ग गये, उसके साथ निश्चय ही गम्भीरता, क्षमा, सत्य, विनय और न्याय ये पाँच गुण भी स्वर्ग में गये हैं । हे तात! आपके वियोग से मैं एक ही दुःख को प्राप्त नहीं करता, परन्तु प्रतिदिन असिद्ध मनोरथ वाले याचक वर्ग भी निश्चय ही दुःख को प्राप्त करते हैं। ऐसा बोलते, शोक से पीड़ित और बड़ी चीख मारते वज्र ने उसका सारा पारलौकिक कार्य किया। फिर प्रीति से लक्ष्यबद्ध बुद्धिवाले स्वजनादि की प्रतिदिन सार सम्भाल आदि करने से कालक्रम से वह शोक के भार से मुक्त हुआ । पूर्व परम्परानुसार कुटुम्ब की चिंता में, लोक व्यवहार में और दानादि धर्मकार्यों में भी वह प्रवृत्ति करते हुए उसने पूर्वजों के मार्ग को अखण्ड रखा। केवल धीरे-धीरे लक्ष्मी कम हुई, व्यापार के लिए दीर्घकाल से परदेश में घूमते हुए वाहन वापिस नहीं आए, भण्डार खाली हुए, व्याज में रखा हुआ धन खत्म हो गया और अनाज आदि संग्रह किया था वह तीव्र अग्नि के कारण जल गया। इस तरह पुण्य के विपरीतता के वशपापोदय से उसका जो जहाँ था वहीं विनाश हो गया और इससे स्वजन भी सारे पराये हो इस तरह विपरीत बन गये। इस तरह परछाई की क्रीड़ा समान अथवा स्वप्न में प्राप्त हुआ धन आदि के समान अनित्य स्वरूप देखकर अति शोकातुर बना वह विचार करने लगा कि
मैं कुसंग से रहित हूँ, परस्त्री तथा जुए का त्यागी हूँ और न्याय मार्ग में चलने वाला हूँ, फिर भी मुझे खेद है कि मेरा धन आदि सारा क्यों चला गया ? अथवा बिजली के प्रकाश समान चपल प्रकृत्ति वाला होने से धन चला जाय, परन्तु बिना निमित्त से स्वजन क्यों विमुख हुए ? हा! हा ! जान लिया, निश्चय धन जाने से अपनी कार्य सिद्धि नहीं होती, इसलिए अब भिखारी जैसे मुझे देखकर धन रहित ऐसे मेरे प्रति स्वजन भी स्नेह किस तरह रखें? मनुष्य के स्वजन, बन्धु और मित्र तब तक सम्बन्ध रखते हैं, कि जहाँ तक कमलपत्र तुल्य लम्बी आँखों वाली लक्ष्मी उसे नहीं छोड़ती है। अब धन रहित मुझे यहाँ रहना योग्य नहीं है क्योंकि - पूर्वजों की परम्परा का व्यवहार तोड़ना वह सज्जनों के लिए अति विडम्बना रूप है। ऐसा विचारकर उसने अन्यत्र जाने की इच्छा रूप अपना अभिप्राय क्षोमिल नामक मित्र से कहा । मित्र ने कहा- तुझे दूसरे देश में जाना योग्य ही है, और मैं भी तेरे साथ ही आऊँगा । फिर वे दोनों अपने नगर से निकलकर शीघ्र गति से सुवर्ण भूमि में पहुँचे, और वहाँ प्राप्ति के लिए अनेकशः उपाय प्रारम्भ किये, इससे भाग्यवश और क्षेत्र की महिमा से किसी तरह बहुत धन प्राप्त किया। उस धन से श्रेष्ठ मूल्य वाले आठ रत्न खरीद लिये और घर को याद करके घर जाने के लिए वहाँ से अपने नगर की ओर चले। फिर आधे मार्ग में क्षोमिल को अति लोभ की प्रबलता से वे सारे रत्न लेने की इच्छा हुई ।
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