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परिकर्म द्वार-पुत्र को अनुशास्ति
श्री संवेगरंगशाला वाली विषय सुख रूप सन्निपात से उत्पन्न हुई गाढ़ निद्रा में बेसुध भी बन जाता है। हे पुत्र! तूं भी तरुण, उत्कृष्ट सौभाग्य से युक्त शरीर वाला और बचपन से भी प्रवर ऐश्वर्य वाला, अप्रतिम रूप और भुजा-बल से शोभित तथा विज्ञान और ज्ञान को प्राप्त करने वाला है। ऐसे गुण वालों से तूं इस गुणों से ही लूटा न जाएँ ऐसी प्रवृत्ति करना, क्योंकि ये एक-एक गुण भी दुर्विनय करने वाले हैं तो सभी एकत्रित होकर क्या न कर बैठे? इसलिए हे पुत्र! परस्त्री सामने देखने में जन्मांध, दूसरों की गुप्त बात बोलने में सदा गूंगा, असत्य वचन सुनने में बहरा, कुमार्ग पर चलने में पंगु और सर्व अशिस्त-गलत प्रवृत्ति करने में प्रमादी बनना। और हे पुत्र! तुझे प्रथम कोई बुलाये तब बोलने वाला, सर्व अन्य जीवों को पीड़ा करने का हमेशा त्यागी, मिथ्या आग्रह से विमुख, गम्भीरता वाला, उदारता को औचित्य पूर्वक धारणा करने वाला, परिवार को प्रिय, शिष्ट लोगों के अनुसार चलने वाला, धर्म में उद्यमी, पूर्व के श्रेष्ठ पुरुषों के चरित्रों को नित्य स्मरण करने वाला और सदा उनके अनुसार आचरण करने वाला, और कुल की कीर्ति को बढ़ाने वाला, गुणिजनों के गुणों की स्तुति करनेवाला, धर्मीजन के प्रति-प्रतिसमय प्रसन्नता को धारण करने वाला, अनर्थकारी पापों को छोड़नेवाला, कल्याणमित्र का संसर्ग करने वाला, सारी श्रेष्ठ पुण्य प्रवृत्ति वाला और सदा सर्व विषयों में शुद्ध लब्ध लक्ष्य वाला बनना चाहिए।
हे पुत्र! इस तरह प्रवृत्ति द्वारा तूं दादा, परदादा आदि पूर्वजों के क्रम से प्राप्त हुए इस वैभव को पूर्वभव के तेरे पुण्य अनुसार भोग कर। सारे कुटुम्ब के भार को स्वीकार कर और उसकी (परिवार) चिन्ता कर, स्वजनों का उद्धार कर और स्नेही अथवा याचक या नौकर वर्ग को प्रसन्न कर। इस तरह अब समग्र कार्यों का भार स्वयं उठाकर तूं मुझे स्वतन्त्र कर दे! हे पुत्र! अब तुझे ऐसा करना योग्य है। इस तरह व्यवहार का भार उठानेवाले तेरे पास रहकर मैं अब कल्याणरूपी पुण्यलता को सिंचन करने में जल की नीक समान सद्धर्म रूपी गुण में लीन बनकर तेरे उत्तम आचरणों को देखने के लिए कुछ समय घरवास में रहूँगा, उसके बाद तेरी अनुमति से संलेखना
पर भार नहीं स्वीकार करते भी पत्र को दृढ प्रतिरूप बंधन के बल से इस प्रकार कान्त और मनोज्ञ भाषा द्वारा सम्यग् रूप से स्वीकार करवाकर भूमिगत गुप्त गाड़े हुए धन समूह को भी दिखा दे, बही-खाते में लेना देना भी बतला कर, अपने योग्य देनदार को देकर और लेने वाले से वसूली कर, स्वजन आदि के समक्ष उसे धन के व्यवहार में अधिकारी पद में स्थापन करें। कुछ धन जिन भवन में महोत्सवादि के लिए, कोई साधारण कार्य आ जाने से उसके लिए, कुछ स्वजनों के लिए, कुछ सविशेष कमजोर संत या साधर्मिकों की सहायता के लिए, कुछ नये धर्म को प्राप्त किये आत्माओं के सन्मान के लिए, कुछ बहन-पुत्रियों के लिए, कुछ दीन-दुःखी आदि की अनुकम्पा के लिए और कुछ उपकारी मित्र और बन्धुओं के उद्धार के लिए, उत्तम श्रावक को पीछे से दुःख न हो इसके लिए अमुक धन अपने हाथ में रखें, नहीं तो उस समय पर जिनमंदिर आदि में खर्च नहीं कर सकता है। यह सामान्य गृहस्थों की विधि कही है। राजा तो अच्छे महल में राज्याभिषेकपूर्वक पुत्र को अपनी गद्दी पर स्थापन कर स्वामित्व, मन्त्री, राष्ट्र इत्यादि सर्व पूर्व कहे अनुसार विधिपूर्वक सौंप दे। न्यायमार्ग का सुंदर उपदेश करें और सामन्त, मन्त्री, सेनापति, प्रजा और सेवकों को तथा नये राजा को भी सर्व साधारण हित शिक्षा दे। इस प्रकार अपना कर्त्तव्य पूर्ण करके, पुत्र के ऊपर समस्त कार्यों का भार रखकर, उत्तरोत्तर अपने इष्ट श्रेष्ठ गुणों की आराधना करें। धर्म में प्रवृत्ति वाला भी और निर्मल आराधना का अभिलाषी भी यदि पूर्व में कहे अनुसार विधि से पुत्र को हित शिक्षा नहीं दे और मूर्छादि के कारण अपना धन समूह नहीं बतलाये तो केसरी का जैसे वज्र नाम का पुत्र कर्म बंधक हुआ वैसे वह कर्म बंधन में कारण रूप होगा ।।२५६९।। उसका प्रबंध इस प्रकार है :
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