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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म द्वार-पुत्र को अनुशास्ति करना क्या योग्य है? मन्द पुण्य वालों को सैंकड़ों भवों में दुर्लभ श्री अरिहंत देव, सुसाधु, गुरुदेव, जैन धर्म में विश्वास, धर्मीजन का परिचय, निर्मल ज्ञान और संसार के प्रति वैराग्य इत्यादि परलोक साधक करनी को भी मैंने सम्यग् रूप से नहीं की। अब महान् पुण्य से मुझे यह समय मिला है, वर्तमान में आत्म कल्याण के लिए धर्म की सविशेष आराधना करना योग्य है। इस प्रकार करने की इच्छा वाला हूँ तो भी घर के विविध कार्यों में नित्य बंधन में पड़ा हुआ और पुत्र, स्त्री में आसक्त मैं वैसी आराधना को निर्विघ्नता से नहीं कर सकता हूँ । अतः जब तक अद्यपि वृद्धावस्था नहीं आती, व्याधियाँ पीड़ित नहीं करतीं, शक्ति भी प्रबल है, समग्र इन्द्रियों का समूह भी अपने-अपने विषयों को ग्रहण करने में समर्थ है, लोग अनुरागी हैं, लक्ष्मी भी जहाँ तक स्थिर है, इष्ट का वियोग नहीं हुआ और यमराजा जागृत नहीं हुआ, और परिवार की दरिद्रता के कारण भविष्य में सम्भवित धर्म की निन्दा न हो उसके लिए तथा निर्विघ्न से निरवद्य धर्म के कार्यों की साधना कर सकूँ। उसके लिए मेरे ऊपर के कुटुम्ब के भार को स्वजन आदि की सम्मति पूर्वक पुत्र को सौंपकर उन पर के मोह को मन्द करके, उस पुत्र की परिणति अथवा भावी परिणाम को देखने के लिए अमुक काल पौषधशाला में रहूँ और अपनी भक्ति तथा शक्ति के अनुसार श्रीजिनेश्वर देवों की अवसरोचित उत्कृष्ट पूजा करने रूप द्रव्यस्तव सिवाय के अन्य आरम्भ के कार्यों को मन, वचन, काया से अल्प मात्र भी करना, करवाने का त्यागकर, निश्चय आगम विधि अनुसार शुद्ध धर्म कार्यों को करके चित्त को सम्यग् वासित करता हूँ, इस तरह कुछ समय निर्गमन करूँगा, इसके बाद सर्व प्रयत्न पूर्वक पुत्र की अनुमति प्राप्त कर योग्य समय में निष्पाप संलेखनापूर्वक आराधना का कार्य करूँगा । इस तरह इसभव और परभव हित चिन्ता का प्रथम द्वार कहा। अब पुत्र शिक्षा नामक दूसरा द्वार अल्पमात्र कहते हैं । । २५२९ ।। पुत्र को अनुशास्ति द्वार : पूर्व में विस्तारपूर्वक कहा हुआ उभय लोक का हित करने वाला, धर्म करने के मुख्य परिणाम वाला, और इससे घरवास को छोड़ने की इच्छावाला, सामान्य गृहस्थ या राजा जब प्रभात में जागृत हो, पुत्र आदि सर्व आदर से चरण में नमस्कार करें, तब उसे अपना अभिप्राय बतलाने के लिए इस प्रकार कहे हे पुत्र! यद्यपि स्वभाव से ही तूं विनीत है, गुणों का रागी और विशिष्ट प्रवृत्ति वाला है, इसलिए तुझे कुछ उपदेश देने की आवश्यकता नहीं है। फिर भी माता-पिता ने पुत्रादि को हितोपदेश देना, वह उनका कर्त्तव्य होने से आज अवश्य तुझे कुछ कहना है । हे पुत्र ! सद्गुणी भी, बुद्धिशाली भी, अच्छे कुल में जन्म हुए भी और मनुष्यों में वृषभतुल्य श्रेष्ठ मनुष्य भी, भयंकर यौवनरूपी ग्रह से जो बुद्धिभ्रष्ट बनें उनका शीघ्र नाश होता हैं । क्योंकि5- इस यौवन का अंधकार चन्द्र, सूर्य, रत्न और अग्नि के प्रकाश से लगातार रोकने पर किंचित् नहीं रुकता है, परंतु अतिरिक्त वह अंधकार फैलती रात में जैसे तारे खिलते हैं, वैसे जीवन में कुतर्क रूपी तारे प्रकट होते हैं। विषय की विचित्र अभिलाषाएँ रूपी व्यंतरियों के समूह का विस्तार होने से दौड़ा-दौड़ी करते हैं। अवसर मिलते ही उन्माद रूपी उल्लू का समूह उछलता है, कलुषित बुद्धिरूपी चमगादड़ का समूह सर्वत्र जाग उठता है, और अनुकूलता होने से प्रमादरूपी खद्योत (जुगनूँ) उसी समय विलास करने लगते हैं और कुवासनाएँ रूपी व्यभिचारिणीओं का समूह निर्लज्ज होकर दौड़ भाग करता हैं। तथा हे पुत्र ! शीतल उपचार से भी उपशम न हो ऐसा दर्प रूपी दाह ज्वर, जल स्नान से भी शान्त नहीं होने वाला तीव्र रागरूपी मैल का विलेपन, मन्त्र-तन्त्र या यन्त्र से भी नहीं रुकने वाला विषयरूपी विषविकार और अंजन आदि के प्रयोग से भी नहीं रुकने वाला लक्ष्मी का अभिमान, भयंकर अंधकारमय जीवन बना देता है और हे पुत्र ! मनुष्यों की रात्री पूर्ण होने पर नहीं रुकने 110 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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