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________________ परिकर्म द्वार-श्रावक की भावना 'श्री संवेगरंगशाला अन्यान्य गुणों की वृद्धि करने में एक रसिक अन्तःकरण वाले दुर्लभ माता-पिता भी मिले हैं। उनके प्रभाव से दृष्टि से देखा हुआ और शास्त्र में सुने हुए पदार्थों के रहस्यों को स्वीकार करने में निपुण बुद्धि और विद्या तथा विज्ञान प्रकर्ष रूप में मुझे प्राप्त हुआ है और मेरी भुजा बल से निष्पाप धन प्राप्त कर पाप रहित विधि से इच्छानुसार उचित स्थान पर दान दिया है। मनुष्य योग्य पाँच इन्द्रियों के विषय भोगों को भी अखण्ड भोगा है, पुत्रों को उत्पन्न किया है, और उनके योग्य उचित अपना कर्त्तव्य भी मैंने किया है। इस तरह इस जन्म के करने योग्य सभी कार्यों को सम्मान पूर्वक पूर्ण करने वाले और घरवास में रहने के कारणों को पूर्ण करने वाले। इस दुष्ट इच्छा वाले, मेरे जीव को अभी भी क्या इस भव के विविध शब्दादि विषयों का सन्मान करने के बिना अन्य कोई आलम्बन स्थान कौन सा शेष रहा है? कि जिससे विषयासक्ति को छोड़कर, एकान्त चिन्तामणि और कल्पवृक्ष से भी अत्यधिक एक धर्म में में स्थिर नहीं होता हूँ?।।२५०० ।। अरे रे! आश्चर्य की बात है कि कुछ विवेकरूपी तत्त्व को प्राप्त किया हुआ, भव्य प्रकृति से ही महान् और संसार वास से अति उद्विग्न चित्तवाला और भोग की समग्र सामग्री का समूह, स्वाधीन फिर भी निश्चय से उसे मिथ्या माननेवाला और उसमें अप्रवृत्ति के लक्ष्य वाला चतुर पुरुष वही होता है जो वह जन्म से लेकर नित्य धर्म में ही अत्यन्त कर्त्तव्य बुद्धि वाला होने से परलोक सम्बन्धी धर्म कार्यों में ही सतत् प्रवृत्ति करता है। और मेरे जैसा आशारूपी पिशाचिनी से पराधीन बने हुए विविध आशा रखने वाले, चतुर पुरुषों से विपरीत बुद्धि वाले और भवाभिनंदी तुच्छ मनुष्य की ऐसी कुबुद्धि भी होती है कि जिससे इस आराधना स्वरूप को कहीं पर, कभी भी, स्वप्न में भी नहीं सुना, देखा और अनुभव भी नहीं किया। अरे! उसका जन्म निष्फल गया है। इसलिए अब मैं यहाँ अथवा वहाँ पर-अमुक स्थान पर, अमुक उस आराधना का आचरण करूँ कि जिससे आज तक उसका अनादर करने से भविष्य में होनेवाला, दुःख मुझे दुःखदायी न बनें, अथवा यह और वह भी कार्य अनुभव किया, परन्तु अमुक परिमित काल तक ही किया, सम्पूर्ण नहीं किया, इससे इच्छा अधूरी रह गयी। अतः अब उस कार्य की इच्छा करता हूँ, उतने काल तक करूँगा कि जिससे वह काल पूर्ण होते ही इच्छाओं की परम्परा का नाश हो और इस तरह इच्छा रहित उपशमभाव को प्राप्त करने के पश्चात् मैं जो कार्य करूँ वह शुभ-सुख रूप बनें। निश्चय ही प्रकृति से ही हाथी के बच्चे के कान समान जीवन चंचल है। वहाँ ऐसा कौन बुद्धिशाली इस संसारवास की अयोग्य कल्पना की इच्छा करें? तथा स्वप्न समान अनित्य इस संसार में यह मैं अभी करता हूँ, और इसे करके यह अमुक समय पर करूँगा, ऐसा भी कौन विचार करें? इसलिए यदि मैं तत्त्वगवेषी बनूँ तो सेवन किये बिना भी मुझे सर्व विषय में अनुभव ज्ञान की तृप्ति हो और यदि तत्त्वगवेषी नहीं बनूँ तो सर्व कुछ भोगने पर भी अनुभव (आत्मतृप्ति) नहीं होती है। क्योंकिइस संसार में जैसे-जैसे जीवों को किसी तरह भी मन-इच्छित कार्य पूर्ण होता है वैसे-वैसे विशेष तृषातुर बना हुआ बिचारा चित्त से दुःखी ही होता है और उपभोग रूप उपायों में तत्पर जो मनुष्य विषय तृष्णा को तृप्त करना चाहता है, वह मध्याह्न बाद अपनी छाया को पार करने के लिए आगे दौड़ता है अर्थात् मध्याह्न के बाद सन्मुख छाया की ओर जैसे-जैसे आगे दौड़ेगा वैसे-वैसे छाया बढ़ती ही जायगी। वैसे ही विषय भोग से जो इच्छा को पूर्ण करना चाहता है, उसकी इच्छा भी बढ़ती ही जाती है। तथा जो अच्छी तरह भोगों को भोगकर, प्रिय स्त्रियों के साथ की हुई क्रीड़ा को और अत्यन्त प्रिय शरीर को भी हे जीव! कभी भी छोडना ही है. चिरकाल स्वजनकुटुम्ब के साथ रहकर भी, दुष्ट मित्रों के साथ क्रीड़ा करके भी, और चिरकाल शरीर का लालन-पालन करके भी, इन सबको छोड़कर ही जाना है। इष्ट मनुष्य धन-धान्य, मकान-दुकान, हवेली और मन को हरण करने में चोर समान, अति मनोहर ठगने वाले विषयों को एक साथ एक समय में छोड़ना है, तो भी मुझे देखा अनदेखा 109 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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