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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म द्वार-नौवाँ परिणाम द्वार-इस भव और परभव का हित चिंतन श्रावक की भावना अरिहंत परमात्मा के शासन को धारणकर उसी आचार्यश्री का ध्यान करते मैं कार्य सिद्ध करूँ। इस तरह निष्कलंक सम्यक्त्व को प्राप्तकर कुरुचन्द्र भिल्ल चारों आहार का त्यागकर मरकर सौधर्मकल्प में देवरूप में उत्पन्न हुआ।। २४७४ । ।
इस तरह कुरुचन्द्र के चारित्र से दूसरे के दबाव से भी साधुओं को दिया हुआ वसती दान प्रायः कर परभव में भी कल्याण को करता है। इसलिए पंडित पुरुष सर्व संग - परिग्रह से मुक्त, देवों से भी पूजित और जगत् के जीवों का हित करने वाले साधुओं को वसति देने में विरोध कैसे करें? साधुओं को वसति देने से उनका सन्मान होता है, इससे आत्मा की ( बुद्धि की) विशुद्धि होती है, इससे निष्कलंक चारित्र की आराधना होती है, इससे कर्मों का विनाश होता है और अन्त में निर्वाण पद प्राप्त करता है। तथा कई जीव सौम्य प्रकृतिवाले मुनियों के दर्शन से, अन्य कोई उनके धर्म उपदेश से और कोई उनकी दुष्कर क्रिया को देखकर भी प्रतिबोध प्राप्त करते हैं, और जिसने बोध प्राप्त किया वे दूसरे को प्रतिबोध करते हैं। जिनमंदिर बनायें, साधर्मिक वात्सल्य करें, और साधुओं को विधिपूर्वक शुद्ध दान दें, इसी तरह तीर्थ (शासन) की वृद्धि - उन्नति हो, नये साधुओं की धर्म में स्थिरता हो, शासन का यश बढ़े और जीवों को अभयदान मिले, इसलिए वसति दान में उद्यम करना चाहिए। इस प्रकार राजा भी वसति का दान देकर गुरु महाराज के पास से धर्म सुनकर हमेशा विशेष धर्म कार्यों में प्रवृत्ति करें।
अब इस सम्बन्ध में अधिक वर्णन करने से क्या ? इस तरह इन्द्रियरूपी पक्षी को वश करने के लिए पिंजरे के समान परिकर्म विधि आदि चार मुख्य द्वार वाली संवेगरंगशाला रूप आराधना के पन्द्रह अन्तरद्वार वाला प्रथम परिकर्म विधिद्वार में आठवाँ राजद्वार ( राजा का विहार) नामक अन्तर द्वार कहा ।। २४८३ ।। नौवाँ परिणाम द्वार :
पूर्व में कहे अनुसार उन सब गुणों के समूह से अलंकृत जीव भी विशिष्ट परिणाम बिना प्रस्तुत आराधना की साधना करने में शक्तिमान नहीं होता है, इसलिए अब परिणाम द्वार कह रहे हैं, इसके दो भेद हैं साधु के परिणाम और गृहस्थ के परिणाम । उसमें गृहस्थ वर्ग के परिणाम द्वार के ये आठ अन्तर द्वार हैं - ( १ ) इस भव और परभव के हित की चिन्ता, (२) घर-व्यवहार सम्बन्धी पुत्र को उपदेश, (३) काल निर्गमन, (४) दीक्षा में अनुमति की प्राप्ति के लिए पुत्र को समझाना, (५) अच्छे सुविहित गुरु के योग की साधना, (६) आलोचना (प्रायश्चित्त) लेना, (७) आयुष्य ज्ञान प्राप्त करना, और (८) अनशनपूर्वक अंतिम संथारा रूपी दीक्षा को स्वीकार करना । । २४८७ ।। इस भव और परभव का हित चिंतन :
इसमें इस जन्म और परजन्म के गुणों की चिन्ता नामक द्वार इस प्रकार से जानना, पूर्व में कहे अनुसार गुण वाला राजा या सामान्य गृहस्थ जिसने श्री जिनमंदिर एक या अनेक करवाये हों, अनेक धर्म स्थानों की स्थापना की हो या करवायी हो, इसलोक-परलोक के कार्य प्रशस्त रूप से किये हो, विषयों में रति मन्द हो गयी हो, धर्म में ही नित्य अखण्ड रागी हो, और धर्म प्राप्ति आदि घर के विविध कार्यों की आसक्ति से मन को वैरागी बनाया हो, ऐसा वह राजा हो अथवा गृहस्थ किसी दिन मध्य रात्री समय अति प्रसन्न-निर्मल चित्तवाला बनकर सम्यग् धर्म चिंतन करते दृढ़ संवेग को प्राप्त कर, संसारवास से अति उद्विग्न मन वाला और नजदीक काल में भावी कल्याण वाला, अल्प संसारी निर्मल बुद्धि से इस प्रकार चिंतन करे :
श्रावक की भावना :
किसी अनुकूल कर्म परिणाम के वश से अति दुर्लभ भी अति उज्ज्वल उच्च कुल में जन्म मिला है। और
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