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परिवर्म द्वार-वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा
श्री संवेगरंगशाला लगातार शास्त्र को सुनते-सुनते राजा ने अंतिम संलेखना तक का गृहस्थ धर्म का सर्व परमार्थ जाना। एक सत्य धर्म से विमुख चित्तवाला कुरुचन्द्र बिना, अन्य उस नगर के निवासी अनेक लोगों को प्रतिबोध हुआ। परंतु कुरुचन्द्र को प्रतिबोध नहीं होने से राजा ने चिंतन किया कि मेरे साथ धर्म सुनने से भी इसे उपकार नहीं हुआ। परंतु अब यदि आचार्य श्री उसके घर के नजदीक रहें तो प्रतिक्षण साधु क्रिया को देखने से इसे धर्म बुद्धि जागृत होगी। ऐसा सोचकर राजा ने उसी समय कुरुचन्द्र को बुलाकर कहा-भो! देवानुप्रिय! ये गुरु जंगम तीर्थ हैं, इसलिए स्त्री, पशु, नपुंसक रहित तेरे अपने घर में इनको रहने के लिए स्थान दे और फिर श्री अरिहंत परमात्मा का कथित धर्म को सुन ।।२४५४।। क्योंकि
धम्मो च्चिय दोग्गइमज्ज-माणमाणवसमुद्धरणधीरो । सग्गाडपवग्गसुहफलसंपाडणकप्पविडवी य ।।२४५५।।
एक धर्म ही दुर्गति में डूबते मनुष्य का उद्धार करने में समर्थ है और स्वर्ग तथा मोक्ष सुखरूपी फल देनेवाला कल्पवृक्ष है। और प्रिया, पुत्र, मित्र, धन, शरीर आदि सब एकान्त क्षणभंगुर, असार और अत्यन्त मनोव्यथा पैदा करने वाले हैं ऐसा समझ ।।२४५५।।
राजा के ऐसा कहने से धर्म क्रिया से विमुख भी कुरुचन्द्र ने राजा के आग्रह से आचार्यजी को अपने घर में रहने का स्थान दिया। फिर हमेशा गुरु के उपदेश को वह सुनने लगा और कुछ राग से बंधे हुए हृदयवाला, सामान्य सद्भावना वाला उसने तपस्वी साधु पुरुषों को विविध तप में रंगे हुए देखा, तो भी श्री वीतराग के सद्धर्म को भावपूर्वक स्वीकार नहीं किया, अथवा 'कम्मगरुयाण किं वा करेज्ज सुगुरुण संजोगो।।२४५९।।" भारे कर्मी को सद्गुरु का संयोग भी क्या कर सकता है? उसके बाद कल्प पूर्ण होते आचार्य अन्य स्थान पर गये, तब श्री जिनेश्वर के आगम के रहस्यों का जानकार राजा ताराचन्द्र श्री जिनमंदिर को तैयार करवाकर उसका अष्टाह्निका आदि महोत्सव, यात्रा और विविध प्रकार की पूजा करने में रक्त चित्तवाला बना, शास्त्र विधि अनुसार अनुकम्पादान आदि धर्म कार्य में प्रवृत्ति करने लगा। महल के नजदीक पौषधशाला बनाकर उसमें अष्टमीचतुर्दशी आदि धर्म के अन्य पर्व के दिनों में पौषध करने में उद्यमशील रहता था। घर में निवास बंधन रूप मानता था। पापी लोगों की संगत का त्यागी, और श्रेष्ठ विशेष गुणों में चित्तवृत्ति को स्थिर करते, विशेष गुण प्राप्ति की भावना वाला, राज्य और राष्ट्र के कार्यों को बाह्य वृत्ति से उदासीनता से ही पूर्ण करता और सच्चारित्र में प्रवृत्ति करता, धार्मिक लोगों का अनुमोदन करता, विशेष आराधना का अभिलाषी और उससे निर्मल परिणाम वाला वह राजा मरकर गृहस्थ धर्म की अंतिम सर्वश्रेष्ठ गति बारहवें देवलोक में दिव्य ऋद्धिवाला देव बना। कुरुचन्द्र भी ऐसी उत्तम धर्म की करणी से रहित अज्ञानादि प्रमाद वाला आर्त्तध्यान में प्रवृत्ति करके मरकर अनेक बार तिर्यंच के भवों में जन्म लिया। वहाँ से निकलकर महाजंगल में भील हुआ, वहाँ समूह के साथ विहार करते साधुओं को देखा। 'कहीं पर ऐसे साधुओं को मैंने पूर्व में देखा है।' ऐसा एकान्त में चिंतन करते उस विचार में लीन बनने से जातिस्मरण ज्ञान हुआ और अपना पूर्व जन्म देखा, तब महान् गुणरूपी रत्नों के भण्डार को अपने घर में रखा था उन मुनियों की स्मृति याद आयी, और उन्होंने बार-बार धर्म-उपदेश भी सुनाया था। इससे वह चिंतन करने लगा कि-उन महामहिमा वाले उपकारी गुरुदेवों ने उस समय मुझे उपदेश दिया था, फिर भी मैंने धर्म में उद्यम नहीं किया। जो कि महानुभाव राजा ने भी उपकार के लिए अपने घर में गुरु महाराज को रख्वाया था, तो भी मुझे उपकार नहीं हुआ। ऐसे भारे कर्मी मुझे अब वैसी सद्धर्म की सामग्री किस तरह मिलेगी? अथवा ऐसा अधिक चिंतन करने से क्या लाभ? ऐसी स्थिति में रहकर भी मैं शीघ्र अनशनकर और मन में जगद् गुरु श्री
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