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श्री संवेगरंगशाला
परिवर्म द्वार-वसतिदान पर कुरुचन्द्र की कथा गाढ़ आलिंगन कर आदरपूर्वक उसने ताराचन्द्र से पूछा-हे मित्र! तेरा यहाँ यह आश्चर्यभूत आगमन कहाँ से हुआ है? अथवा श्रावस्ति से निकलकर इतना समय तूंने कहाँ व्यतीत किया? और वर्तमान में तूं पुनः निरोगी अंग वाला किस तरह हुआ? उसके पश्चात् ताराचन्द्र ने नगर में से निकलकर प्रातःकाल में जागा वहाँ तक का अपना सारा वृत्तान्त उसे कहा। कुरुचन्द्र ने भी वेश्या की माता का सारा व्यतिकर ताराचन्द्र से कहा। इससे उसका प्रपंच जानकर ताराचन्द्र ने मन में विचार किया कि ।।२४२४।।-बोलती है अन्य और करती है अन्य, स्नेहरहित फिर भी कपट स्नेह से अन्य को देखती है और राग दूसरे के प्रति करती है। ऐसी स्त्रियों के चरित्र को धिक्कार हो। भौरा जैसे मद के लोभ से हाथी के गंड स्थल को चूसता है, वैसे धन के लोभ से जो चण्डाल को भी चुंबन करती है, उन युवतियों का इस संसार में कौन सा निन्दनीय कार्य नहीं है? अथवा पर्वत के शिखर से गिरती नदी के तरंग समान चंचल चित्तवाली कपट का घर स्त्रियों का स्वभाव निश्चय ऐसा ही होता है। ऐसा विचारकर उसने कहा-हे कुरुचन्द्र! अपना वृत्तान्त कह, तूं यहाँ क्यों आया? और इसके बाद कहाँ जायगा? एवम् पिताजी की स्थिति क्या है? सारे राज्य कर्मचारियों की भी कुशलता कैसी है? और गाँव, नगर, देश सहित श्रावस्ती भी अच्छी तरह स्वस्थ है? कुरुचन्द्र ने कहा-राजा की आज्ञा से यहाँ रत्नपुर में आया हूँ और अब श्रावस्ती में जाऊँगा। एक तेरे विरह से गाढ़ दुःखी राजा के बिना समग्र राजचक्र तथा देश सहित नगर की भी कुशलता है। जिस दिन तूं निकला था उसी दिन से तुझे खोजने के लिए राजा ने सर्व दिशाओं में पुरुषों को भेजा था, परन्तु तूं नहीं मिला। इससे हे महाभाग! मेरा रत्नपुर में आगमन बहुत फलदायक बना कि जिससे तूं मुझे पुण्य से आज अचानक यहाँ मिला।
इधर मदनमंजूषा जागृत होकर शयन कक्ष में ताराचन्द्र को नहीं देखने से तुरन्त-हे प्रियतम! आप कहाँ हो? ऐसा बोलते जब रोने लगी तब उसकी माता ने रत्न के अलंकारों की स्वयं चोरी करके कहा-हे पुत्री! इस तरह लगातार क्यों रो रही है? उसने कहा-माता! मेरा हृदय वल्लभ को मैं यहाँ कहीं नहीं देखती हूँ। उसे सुनकर कपट से बाहर अंदर घर में देखकर व्याकुल जैसी कपट से बनकर माता ने कहा-वे रत्न के अलंकार भी नहीं दिखते हैं, मुझे लगता है कि उसे लेकर वह आज भाग गया है। अरे पापिष्ठ! उससे तूं आज अच्छी तरह ठगी गई है, तूं इसके योग्य ही है, क्योंकि तुझे बार-बार रोकने पर भी निर्धन परदेशी मुसाफिर में तूंने राग किया। इत्यादि कपट युक्त वचनों के प्रवाह से उस पुत्री का इस तरह तिरस्कार किया कि जिससे भयभीत बनी उसने सहसा मौन सेवन किया।
इस ओर जहाज जब समुद्र किनारे पहुँचा और वह जहाज को छोड़कर कुरुचन्द्र के साथ ताराचन्द्र रथ में बैठा। फिर आगे चलते वे जब श्रावस्ती नगरी के बाहर पहुँचे तब उसका आगमन जानकर राजा ने घर में प्रवेश करवाया। राजा के पूछने पर कुमार ने भी अपना सारा वृत्तान्त सुनाया, फिर प्रसन्न हुए राजा ने कुरुचन्द्र को मन्त्री बनाया और अति प्रशस्त दिन में ताराचन्द्र को राज्य सिंहासन पर बैठाया और स्वयं ने दीक्षा लेकर श्रेष्ठ साधना कर मरकर देवलोक में पहुँचे। अनेक रथ, योद्धा, हाथी, घोड़े और वृद्धि होते निधान वाला राजा ताराचन्द्र भी राज्य को निष्पाप रूप से भोगने लगा। चारण मुनीश्वर के कथनानुसार धर्म की अत्यन्त भावपूर्वक एकाग्र चित्त से आराधना करने लगा, और जिनेश्वर भगवान की प्रतिमा की पूजा करने लगा। एक समय अनियत विहार की विधि का पालन करते हुए बहुश्रुत श्री विजयसेन सूरिजी वहाँ पधारे। बड़े वैभव के साथ ताराचन्द्र ने उनके पास जाकर वंदना की और सविशेष धर्म सनने के लिए वसती (स्थान) देकर अपने घर में रखा। फिर वह हमेशा नय विभाग से युक्त विविध अर्थों के समूह से शोभते युक्ति से संगत सिद्धान्त नित्य सुनने लगा। इस तरह हमेशा
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