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श्री संवेगरंगशाला
परिकम विधि द्वार-सुंदरी नंद की कथा बुद्धि की अति निर्मलता के कारण जैन मत के विज्ञाता नंद को भी एक समय पर ऐसा विचार आया किव्यवसाय रूपी धन, उद्यम बिना का पुरुष, लोग में निंदा पात्र बनता है और कायर पुरुष मानकर उसे पूर्व की लक्ष्मी भी शीघ्र छोड़ देती है। अतः पूर्वजों की परंपरा के क्रम से आया हुआ समुद्र मार्ग का व्यापार करूँ। पूर्वजों के धन से आनंद करने में मेरी क्या महत्ता है? क्या वह भी जगत में जीता गिना जाये कि जो अपने दो भुजाओं से मिले हुए धन से प्रतिदिन याचकों को मनोवांछित नहीं देता? विद्या, पराक्रम आदि गुणों से प्रशंसनीय आजीविका से जो जीता है, उसका जीवन प्रशंसनीय है। इससे विपरीत जीने वाले, उस जीवन से क्या लाभ? पानी के बुलबुले के समान जगत में क्या पुरुष अनेक बार जन्म-मरण नहीं करता है? तात्त्विक शोभा बिना के उस जन्म और मरण से क्या प्रयोजन है? उसकी प्रशंसा किस तरह की जाये कि जब सत्पुरुषों की प्रशंसा होती है, उस समय अपने त्यागादि अनेक गुणों से उनका प्रथम नंबर नहीं आता? अर्थात् सत्पुरुषों में यदि प्रथम नंबर नहीं आता उसकी प्रशंसा कैसे हो? ऐसा विचारकर उसने शीघ्र अन्य बन्दरगाह में दुर्लभ अनाज समूह से भरकर जहाज समुद्र के किनारे तैयार किये। और जाने के लिए अति उत्सुक देखकर उसके विरह सहन करने में अति कायर बनने से अत्यंत शोकातुर सुंदरी ने उससे कहा कि-हे आर्य पुत्र! मैं भी निश्चय आपके साथ जाऊँगी, क्योंकि प्रेम से पराधीन तुम्हारे विरह में शांत रहने में मैं शक्तिमान नहीं हूँ। ऐसा उसके कहने से अति दृढ़ स्नेहवश से आकर्षित चित्त के वेग वाले नंद ने वह स्वीकार किया।
फिर श्रेष्ठ प्रस्थान का समय आते ही उन दोनों ने श्रेष्ठ जहाज में बैठकर और प्रसन्न चित्तवाले कुशल रूप में अन्य बंदरगाह में पहुँचें। वहाँ अनाज बेचा और अनेक सोना-मुहरें प्राप्त की। उसके स्थान पर अन्य अनाज लेकर समुद्र मार्ग से वापिस जाते पूर्वकृत कर्मों के विपाक से अति प्रबल पवन से टकराते जहाज के शीघ्र ही सैंकड़ों टुकड़े हो गयें। फिर तथाभव्यत्व के कारण मुसीबत से शीघ्र ही लकड़ी का तख्ता हाथ में आया और वे दोनों एक ही बंदरगाह पर पहुँचें। तथा अघटित को घटित और घटित को अघटित करने में कुशल विधाता के योग में विरह से अति व्याकुल बनें उन दोनों का परस्पर दर्शन मिलन हुआ। उसके बाद हर्ष और खेदवश उछलते अति शोक से सूजन हुए गले वाली मानो समुद्र के संग से लगे हुए जल बिन्दुओं के समूह बिखरते हों, इस तरह अखण्ड गिरते आँसू की धारा वाली दीन सुंदरी सहसा नंद के गले से लिपट कर रोने लगी। तब महा मुसीबत से धीरज धारण करके नंद ने कहा कि-हे सुंदरी! अत्यंत श्याम मुखवाली, तूं इस तरह शोक क्यों करती है? हे मृगाक्षी! जगत में वह कौन जन्मा है कि जिसको संकट नहीं आया? और जन्म मरण नहीं हुआ हो? हे कमलमुखी! यदि आकाश तल के असाधारण चूड़ामणी तुल्य सूर्य का भी प्रतिदिन उदय, प्रताप और विनाश होता है। अथवा तूंने श्री जिनेश्वर भगवान की वाणी में नहीं सुना कि-पूर्व पुण्य का क्षय होते ही देवेन्द्र भी दुःखी अवस्था प्राप्त करते हैं? हे सुतनु! पेड़ छाया के समान दुःखों की परंपरा जिसके साथ ही परिभ्रमण करती है, वह कर्म के वश पड़े हुए जीवों को इतने बड़े दुःख से संताप क्यों होता है? इत्यादि वचनों से सुंदरी को समझाकर भूख-प्यास से पीड़ित नंद उसके साथ ही गाँव की ओर चले। फिर सुंदरी ने कहा कि-हे नाथ! परिश्रम से थकी हुई अत्यंत तृषातुर, मैं यहाँ से एक कदम भी आगे चलने में असमर्थ हूँ। तब नंद ने कहा कि-हे सुतनु! तूं एक क्षण यहाँ पर विश्राम ले, कि जिससे मैं तेरे लिए कहीं से भी जल ले आऊँ। उसने स्वीकार किया, अतः नंद उसे छोड़कर शीघ्र नजदीक के वन प्रदेश में पानी खोजने गया। और दुर्भाग्यवश वहाँ यम समान भूख से अतीव पीड़ित फाड़े हुए महान मुख वाला और अति चपल लप-लप करते जीभ वाले सिंह को उसने देखा। उस सिंह के भय से संभ्रम युक्त बन गया। इससे अनशनादि अंतिम आराधना के कर्त्तव्य को भूल गया। आर्त्तध्यान को
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