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________________ परिवहन विधि द्वार-सुंदरी नंद की कथा श्री संवेगरंगशाला प्राप्तकर शरण रहित उस नंद को सिंह ने मार दिया, और सम्यक्त्वरूप शुभ गुणों का नाश होने से वह नंद बाल मरण के दोष से उसी वन प्रदेश में बंदर रूप में उत्पन्न हुआ ।।३६६८।। इधर राह देखती सुंदरी ने दिन पूरा किया, फिर भी जब नंद वापिस नहीं आया, तब ‘पति मर गया है' ऐसा निश्चय करके क्षोभ प्राप्त करती 'धस' शब्द करती जमीन पर गिर गयी, मूर्छा से आँखें बंद हो गयीं। एक क्षण मुर्दे के समान निचेष्ट पड़ी रही। तब वन के पुष्पों से सुगंधवाले वायु से अल्प चैतन्य को प्राप्त करके दीन मुख वाली वह गाढ़ दुःख के कारण जोर से रोने लगी। हे जिनेश्वर भगवान के चरण कमल की पूजा में प्रीतिवाले! हे सद्धर्म के महान भण्डार रूप! हे आर्य पुत्र! आप कहाँ गयें? मुझे जवाब दो! हे पापी देव! धन, स्वजन और घर का नाश होने पर भी तुझे संतोष नहीं हुआ! कि हे अनार्य! आज मेरे पति को भी तूंने मरण दे दिया है। पुत्री वत्सल पिताजी! और निष्कपट (निर्मल) निष्कर प्रीतिवाली हे माताजी! हा! हा! आप दुःख समुद्र में गिरी हुई अपनी पुत्री की उपेक्षा क्यों कर रहे हो? इस तरह चिरकाल विलाप करके परिश्रम से बहुत थके शरीर वाली, दो हाथ में रखे हुए मुख वाली अति कठोर दुःख को अनुभव करती वहां इधर-उधर घूमते एक जगह बैठी, अश्व खिलाते प्रियंकर नामक श्रीपुर नगर का राजा वहाँ आया। और उसे इस तरह देखकर विचार करने लगा-क्या श्राप से भ्रष्ट हई यह कोई देवी है अथवा कामदेव से विरहित रति है? कोई वन देवी है अथवा कोई विद्याधरी है? इस तरह विस्मित मन वाले उसने उससे पूछा कि-हे सुतनु! तूं कौन है? यहाँ क्यों बैठी है? कहाँ से आयी है? और इस प्रकार संताप को क्यों करती है? फिर लम्बा उष्ण निश्वास से स्खलित शब्द वाली और शोकवश आँखें बंद वाली सुंदरी ने कहा कि-हे महा सात्त्विक! संकटों की परंपरा को खड़े करने में समर्थ विधाता के प्रयोगवश यहाँ बैठी हूँ। मेरी दुःखसमूह के हेतुभूत यह बातें जानकर क्या लाभ है? यह सुनकर संकट में पड़ी हुई भी 'उत्तम कुल में जन्म लेने वाली कुलीन होने के कारण यह अपना वृत्तान्त नहीं कहेगी।' ऐसा सोचकर राजा उसे कोमल वाणी से समझाकर महा मुसीबत से अपने घर ले गया और अति आग्रह से भोजनादि करवाया। उसके बाद राजा का उसके प्रति अनुराग होने से, हमेशा उसका मन इच्छित पूर्ण करता है। फिर 'राजा का सन्मान प्राप्त कर प्रेमपर्वक बातें कर' वह प्रसन्न रहती थी। इससे राजा ने कुछ दिन बाद एकान्त में सुंदरी से कहा कि-हे चंद्रमुखी! शरीर और मन की शांति को नाश करने के लिए पूर्व के बनें वृत्तान्त को भूलकर, मेरे साथ इच्छानुसार विषयसुख का भोग करो। हे सुतनु! दीपक की ज्योति से मालती की माला जैसे सूख जाती है, वैसे शोक से तपी हुई तेरी कोमल कायारूपी लता हमेशा सूख रही है। हे सुतनु! राहु के उपद्रव से घिरा हुआ जन-मन को आनंद देनेवाले शरदपूर्णिमा के चंद्र बिम्ब समान, जन-मन को आनंद देने वाला भी शोकरूपी राहु के उपद्रव से पीड़ित तेरे यौवन सौभाग्य का आदर नहीं होता है। अति सुंदर भी, मन प्रसन्न भी और लोक में दुर्लभ भी खो गयी अथवा नाश हुई वस्तु का समझदार पुरुष शोक नहीं करते हैं। अतः तुझे इस विषय में अधिक क्या कहे? अब मेरी प्रार्थना को तूं सफल कर, पंडितजन प्रसंगोचित प्रवृत्ति में ही उद्यम करते हैं। कान को अति कटु लगने वाला और पूर्व में कभी नहीं सुना हुआ यह वचन सुनकर व्रत भंग के भय से उलझन में पड़ी गाढ़ दुःख से व्याकुल मन वाली उसने कहा कि-हे नर शिरोमणि! सुकुल में उत्पन्न हुआ, लोक में प्रसिद्ध और न्याय मार्ग में प्रेरक, आपके सदृश श्रेष्ठ पुरुष को परस्त्री का सेवन करना अत्यंत अनुचित है। इस लोक और परलोक के हित का नाश करने में समर्थ और तीनों लोक में अपयश की घोषणा रूप है। राजा ने कहा कि-हे कमलमुखी! चिर संचित पुण्य समूह के उदय से निधान रूप मिली हुई तुझे भोगने में मुझे क्या दोष है? उसके बाद राजा के अतीव आग्रह को जानकर उसने उत्तर में कहा कि-हे नरवर! यदि ऐसा ही है तो चिरकाल 157 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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