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परिकम विधि द्वार-सुंदरी नंद की कथा
श्री संवेगरंगशाला जीवों ने बाल मरणों के द्वारा मरने से निश्चय ही दीर्घकाल तक परिभ्रमण किया है, करते हैं और करेंगे। जैसे किदुःख से मुक्त होने की इच्छा वाले जन्म, जरा और मरण रूपी चक्र में बार-बार परिभ्रमण करने से अत्यधिक थके हुए, परिभ्रमण करते हुए भी पार को प्राप्त नहीं करने वाले, इस संसार रूपी रहट में बँधे हुए जीवों रूपी बैल घूम रहे हैं। बैल अनेकों बार घूमने के बाद भी उसी चक्र में रहता है। यही दशा बाल मरण करनेवाले जीवों की हैं, उन जीवों को जो चार गतियों में और जो चौरासी लाख योनियों में अनिष्टप्रद है उसे ही दुःखपूर्वक अनुभव करना होता है, और जो इष्ट होने पर भी निरनुबन्धी-वियोग होता है और जो दुःख से पार हो सके, ऐसा अनिष्ट होने पर भी सानुबन्धी अर्थात् संयोग जीव को प्राप्त होता है। इस तरह बाल मरण का भयंकर स्वरूप जानकर धीर पुरुषों को पंडित मरण को स्वीकार करना चाहिए। पंडित शब्द का अर्थ इस प्रकार से है- ।।३६१७।।
_ 'पण्डा' अर्थात् बुद्धि उससे युक्त हो, उसे पंडित कहते हैं, और उसकी जो मृत्यु उसे पंडित मरण कहते हैं। इसे शास्त्र द्वार में जो पंडित मरण कहा है वह भक्त परिज्ञा ही है कि जिसके मरने से मरने वाले को निश्चय इच्छित फल की सिद्धि होती है। वर्तमान में दुःषमकाल है, अनिष्ट अंतिम संघयण है, अतिशयी ज्ञानी पुरुषों का अभाव है, तथा दृढ़ धैर्य बल नहीं होने पर भी यह भक्त परिज्ञा मरण भी सुंदर है। काल के योग साध्य है, जो पादपोपगमन और इंगिनी मरण से मिलता हुआ और वैसा ही फल देने वाला है। यह भक्त परिज्ञा निश्चय मनोवांछित शुभ फल देने में कल्पवृक्षों का एक महा उपवन है। और अज्ञानरूपी अंधकार से गाढ़ दुःषम कालरूपी रात्री में शरद का चंद्र है और यह भयंकर संसाररूपी मरुस्थल में लहराते निर्मल जल का सरोवर है
और अत्यंत दरिद्रता का नाश करने वाला श्रेष्ठ चिंतामणी है, और वह अति दुर्गम दुर्गति रूपी मार्ग में फंसे हुए को बचाने के लिए उत्तम मार्ग है, और मोक्ष महल में चढ़ने के लिए उत्तम सीढ़ी है। बुद्धिबल से व्याकुल, अकाल में मरने वाले, दृढ़ धर्म में अभ्यास रहित भी वर्तमान काल के मुनियों के योग्य यह मरण निष्पाप और उपसर्ग रहित है। इसलिए व्याधि ग्रस्त और मरेगा ही ऐसा निश्चय वाला भव्य आत्मा साध या गहस्थ को भक्त परिज्ञा रूपी पंडित मरण में यत्न करना चाहिए। पंडित मरण से मरे हुए अनंत जीव मुक्ति महल प्राप्त करते हैं और बाल मरण
भयंकर अरण्य में अनंत बार परिभ्रमण करते हैं। एक बार का एक पंडित मरण भी जीवों के दुःखों को मूल से नाश करके स्वर्ग में अथवा मोक्ष में सुख देता है। यदि इस जीव लोक में जन्म लेकर सबको अवश्य मरना है तो ऐसे किसी श्रेष्ठ रूप में मरना चाहिए कि जिससे पुनः मरण न हो। सुंदरी नंद के समान तिर्यंच रूप बने हुए भी जीव यदि किसी तरह पंडित मरण को प्राप्त करें, तो इच्छित अर्थ की सिद्धि करता है ।।३६३०।।
संदरी नंद की कथा इस जम्बू द्वीप में भरतक्षेत्र के अंदर इंद्रपुरी समान पंडितजनों के हृदय को हरण करनेवाली, हमेशा चलते श्रेष्ठ महोत्सव वाली, श्री वासुपूज्य भगवान के मुखरूपी चंद्र से विकसित हुई, भव्य जीव रूपी, कुमुद के वनों वाली, लक्ष्मी से शोभित, जगत प्रसिद्ध चम्पा नामक नगरी थी। वहाँ कुबेर के धन भंडार को पराभव करने वाला, महान् धनाढ्य, वहाँ का निवासी विशिष्ट गुण वाला धन नामक सेठ रहता था। उसकी तामलिप्ती नगरी का रहनेवाला वसु नामक व्यापारी के साथ निःस्वार्थ मित्रता हुई। जैनधर्म पालन करने में तत्पर और उत्तम साधुओं के चरण कमल की भक्ति करने वाले वे दोनों दिन व्यतीत करते थे। वे दोनों सेठ हमेशा अखण्ड प्रीति को चाहते थे। अतः धन सेठ ने अपनी पुत्री सुंदरी को वसु सेठ के पुत्र नंद को दी। और अच्छे मुहूर्त में बहुत लक्ष्मी समूह को खर्चकर जगत् के आश्चर्य को उत्पन्न करने वाला उन दोनों का विवाह किया। उसके बाद पूर्वोपार्जित पुण्य रूपी वृक्ष के उचित सुंदरी के साथ विषयसुख रूपी फल को भोगते नंद के दिन बीत रहे थे।
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से पनः
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