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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकर्म विधि द्वार-अधिगत मरण नामक बारहवाँ ढार सर्व साध्वी. प्रथम संघयण बिना के पुरुष और सब देश विरति धारक श्रावक भक्त परीक्षा को स्वीकार कर सकते हैं, परंतु इंगिनी मरण को तो अति दृढ़ धैर्य वाला और बल वाला पुरुष ही आचरण कर सकता है। साध्वी आदि को उसका प्रतिषेध बतलाया है। और आत्म–शरीर संलेखना करने वाले या नहीं करने वाले तथा दृढ़तम बुद्धि बल वाले, प्रथम संघयण वाले, पादपोपगमन अनशन करते हैं। स्नेहवश देव ने तमस्काय-घोर अंधकार आदि करने में भी वह धीर आत्माएँ स्वीकार किया हुआ विशुद्ध ध्यान से अल्प भी चलित नहीं होते हैं। चौदह पूर्वी का विच्छेद हो तब पादपोपगमन करने वालों का भी विच्छेद होता है। क्योंकि उसके बाद पहला संघयण नहीं होता है। इस तरह इस द्वार में संक्षेप में मरण विधि कही है। इसका भी फल आराधना के फल को बतलाने वाले द्वार में आगे कहूँगा। इस तरह सिद्धांत रूपी समुद्र में अमृत तुल्य संवेगरंगशाला नाम की आराधना का मूलभूत प्रथम परिकर्म द्वार में पन्द्रह प्रतिद्वार हैं। उस क्रम के अनुसार यह मरण विभक्ति नामक ग्याहरवाँ द्वार कहा है। पूर्व में सामान्यतया अनेक प्रकार के मरणों को बतलाया है। अब प्रस्तुत पंडित मरण द्वार के स्वरूप को कहते हैं।।३५९७।। अधिगत मरण नामक बारहवाँ द्वार : प्रश्न-प्रस्तुत पंडित मरण किस प्रकार है? उत्तर-दुःख के समूह रूप लताओं का नाश करने के लिए एक तीक्ष्ण धार वाला महान कुल्हाड़ी के समान है। और इससे विपरीत मरण को मोह मैल रहित श्री वीतराग भगवंतों ने बाल मरण कहा है। इन दोनों का स्वरूप इस तरह पाँच प्रकार का बतलाया है। (१) पंडित-पंडित मरण, (२) पंडित मरण, (३) बाल पंडित मरण, (४) बाल मरण और (५) बाल-बाल मरण ।।३६०० ।। इसमें प्रथम जिनेश्वर भगवंत को होता है, दूसरा सर्व विरति साधुओं को, तीसरा देश विरति श्रावक को, चौथा सम्यग् दृष्टियों को, और पाँचवां मिथ्या दृष्टियों को होता है। अन्य आचार्यों ने जो यह पाँच मरण रूप ज्ञेय पदार्थ है, उसका विभाग इस प्रकार बतलाया है। जैसे किकेवली भगवंत को आयुष्य पूर्ण करते समय पंडित-पंडित मरण होता है। भक्त परिज्ञादि तीन पंडित मरण मुनिवर्य को होते हैं। देशविरति और अविरति समकित दृष्टियों को बाल पंडित मरण होता है। जो मंद मिथ्यात्वी मिथ्या दृष्टियों को बाल मरण होता है। और कषाय से कलुषित जो दृढ़ अभिग्रहिक मिथ्यात्व सहित मरते हैं, उनका सर्व जघन्य बाल मरण होता है। अथवा पाँच में प्रथम तीन पंडित मरण और अंतिम दो बाल मरण जानना। उसमें प्रथम तीन समकित दृष्टि और अंतिम दो को मिथ्यादृष्टि जानना। इसमें प्रथम तीन मृत्यु से मरने वाले मुनियों को अप्रमत्त, स्वाश्रयी, एकाकी विहार-अनशन की विधि क्रमशः उत्तम, मध्यम और जघन्य जानना। यद्यपि सम्यक्त्व में पक्षपाती मन वाले जीव मरते समय असंयमी होते हैं तो भी श्री जिनवचन के अनुसार आचरण करने से वे अल्पसंसारी हैं। जो श्री जिनाज्ञा में श्रद्धावाला, प्रतीतिवाला और रुचिवाला होता है वह सम्यक्त्व के अनुसार आचरण करने से निश्चित आराधक होता है। श्री जिनेश्वरों के कथित इस प्रवचन में श्रद्धा को नहीं करनेवाले अनेक जीवों ने भूतकाल में अनन्त बाल मरण किये हैं, फिर भी ज्ञानरहित-विवेक शून्य उन बिचारें जीवों ने उस अनन्त मरण से भी कुछ अल्पमात्र भी गुणों को प्राप्त नहीं किया। इसलिए बाल मरण के वर्णन के विस्तार को छोड़कर केवल उसके विपाक को संक्षेप से मैं कहता हूँ, उसे तुम कान लगाकर सुनो।।३६१२।। अनेक जात की विकार वाली अथवा विस्तार वाली संसार रूपी भयंकर दुर्गम अटवी में दुःख से पीड़ित 154 - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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