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परिवर्न विधि द्वार-पादपोपगमन मरण
श्री संवेगरंगशाला उपक्रम इंगिनी मरण में भी यथायोग्य जानना। द्रव्य से शरीरादि की और भाव से रागादि की संलेखना करने वाला, इंगिनी मरण में ही एक बद्ध व्यापार वाला, प्रथम के तीन संघयण वाला, और बुद्धिमान ज्ञानी मुनि अपने गच्छ से क्षमा याचनाकर, अंदर और बाहर से भी सचित्त या जीवादि से संसक्त न हो शद्ध भूमि के ऊपर बैठकर. वहाँ तृण आदि को बिछाकर उत्तर अथवा पूर्व में मुख रखकर और मस्तक पर अंजलिकर, विशुद्ध चित्तवाला वह श्री अरिहंत आदि के समक्ष आलोचना लेकर चारों प्रकार के आहार का त्याग करें। अपने शरीर के अवयव को लम्बे-चौड़े किये बिना ही क्रियाओं को स्वयं करें, जब उपसर्ग रहित हो तब बड़ी नीति आदि को सम्यग् स्वयं परिष्ठापन (परठवे) करें और उसे जब देवता या मनुष्यों के उपसर्ग हों तब लेशमात्र भी कम्पायमान हुए बिना निर्भय उन उपसर्गों को सहन करें। इस तरह प्रतिकूल उपसर्ग सहन करने के बाद किन्नर, किंपुरुष आदि व्यंतरों की देव कन्याएँ भोगादि की अनुकूल प्रार्थना करें, तो भी वह क्षोभित न हो तथा वह मान सन्मानादि ऋद्धि से विस्मय को नहीं करें, और उसके शरीरादि के सर्व पुद्गल दुःखदायी बनें-पीड़ा दे तो भी उसे ध्यान में थोड़ी भी विश्रोतसिका (स्खलना) न हो, अथवा उसको सर्व पुद्गल सुखरूप में बनें तो भी उसे ध्यान में भंग न हो। उपसर्ग करने वाला कोई उसे यदि जबरदस्त सचित्त भूमि में डाले तो वहाँ भाव से शरीर मुक्त होकर, शरीर से आत्मा को भिन्न मानकर उसकी उपेक्षा करें, और जब उपसर्ग शान्त हो, तब यत्नपूर्वक शुद्ध निर्जीव-अचित्त भूमि में जाय। सूत्र की वाचना, पृच्छना, परावर्तना और धर्मकथा को छोड़कर सूत्र और अर्थ उभय पोरिसी में एकाग्र मन वाला सूत्र का स्मरण करें। इस तरह आठ प्रहर स्थिर एकाग्र, प्रसन्न चित्त वाला ध्यान को करें, और बलात्कार से निद्रा आये तो भी उसे थोड़ी भी स्मृति का नाश न हो। सज्झाय, कालग्रहण, पडिलेहण आदि क्रियाएँ उनको नहीं होती हैं, क्योंकि उसे श्मशान में भी ध्यान का निषेध नहीं है। वह उभयकाल आवश्यक को करें, जहाँ शक्य हो वहाँ उपधि की पडिलेहण करें और कोई स्खलना हो तो उसका मिच्छा मि दुक्कडं करें। वैक्रिय आहारक, चारण अथवा क्षीराश्रव आदि लब्धियों का यदि कोई कार्य आ जाए तो भी वैराग भाव से उसका उपयोग करें। मौन के अभिग्रह में रक्त होने पर भी आचार्यादि के प्रश्नों का उत्तर दे और यदि देव तथा मनुष्य पूछे तो धर्म कथा करें। इस तरह शास्त्रानुसार से इंगिनी मरण को सम्यग् रूप से कहा है।
अब संक्षेप से ही सत्तरहवाँ पादपोपगमन मरण को कहता हूँ ।।३५८१।।
मरण के प्रकार में निश्चय वृक्ष के समान जहाँ किसी स्थान में अथवा जिस किसी आकृति में रहने के अभिग्रह को पादपोपगमन मरण कहते हैं। जिस अंग को जहाँ जिस तरह रखें, उसे वहाँ उसी तरह धारण करना, हलन चलन नहीं करना, वह पादपोपगमन मरण, नीहार और अनीहार इस तरह दो प्रकार का होता है। उसमें उपसर्ग द्वारा भी अन्यत्र हरण किया हो, उस मूल स्थान से अन्य स्थान में कालधर्म प्राप्त करना उसे नीहारिक कहा जाता है और उपसर्ग रहित मूल स्थान में ही मरें उसे दूसरा अनीहारिक कहते हैं। पृथ्वीकाय, अप्काउ, तेउकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय वाले स्थान में संहरण करने पर भी शरीर के ममत्व के त्याग द्वारा और सेवा-सार संभाल नहीं करने वाला, उसका त्यागी वह महात्मा जब तक जियेगा तब तक वह अनशन का पालन करेगा, जर
चलन नहीं करें। शोभा अथवा गंधादि विलेपन से यदि कोई विभषित करे तो भी जीवन तक शुद्ध लेश्या वाला, पादपोपगमन वाला मुनि चेष्टा रहित रहता है। क्योंकि-खड़ा हुआ अथवा लम्बा पड़ा हो तो भी शरीर के अंग लम्बे चौड़े किये बिना उद्वर्तनादि से रहित और जड़ के समान हलन चलनादि चेष्टा से रहित हो। इससे वह वक्ष के समान दिखता है। इस तरह सत्तरहवें प्रकार के मरण के स्वरूप अल्पमात्र किया है, अब वह अंतिम तीन मरणों के विषय में कहने योग्य कुछ कहता हूँ।
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भी हलन च
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