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________________ श्री संवेगरंगशाला परिकम विधि द्वार-इंगिनी मरण जी शीघ्र जागृत हुए और राजा को मरा हुआ देखकर विचार किया कि-निश्चित ही उस कुशिष्य का यह कर्म है। इससे यदि मैं अब प्राणों का त्याग नहीं करूँगा तो सर्वत्र जैन शासन की निंदा होगी और धर्म का विनाश होगा। ऐसा चिंतन मननकर अनशन आदि सर्व अंतिम विधि करके उत्सर्ग-अपवाद विधि में कुशल उस आचार्यश्री ने उस कटारी को अपने गले में चुभाकर काल धर्म प्राप्त किया। इस तरह आगाढ़ कारणों के कारण शस्त्र, फाँसी आदि प्रयोगों से भी मरना, उसे निर्दोष कहा है। अब पन्द्रहवाँ भक्त परिज्ञा मरण कहते हैं। इस संसार में पूर्व के अंदर अनेक बार अनेक प्रकार का भोजन खाया, फिर भी उससे जीव को वास्तविक तृप्ति नहीं हुई, नहीं तो पुनः कदापि सुना न हो, कभी भी देखा न हो, कदापि खाया न हो, वैसे ही जैसे प्रथम ही बार अमृत मिला हो। इस प्रकार प्रतिदिन उसका अति सन्मान कैसे करता? अशुचित्व आदि अनेक प्रकार के विकार को प्राप्त करने के स्वभाव वाला यह आहार है। उसके चिंतन मात्र से भी पाप का कारण बनता है, ऐसा भोजन करने से अब मुझे क्या प्रयोजन है? ऐसे भगवंत के वचन के द्वारा ज्ञान होने से योग्य विषयों का हेय रूप ज्ञान और इससे उसी तरह पच्चक्खाण द्वारा चार प्रकार के सर्व आहार, पानी का, बाह्य वस्त्र, पात्रादि उपधि का तथा अभ्यंतर रागादि उपधि का, इन सबका जावज्जीव तक त्याग करना, इत्यादि जो इस भव में तीनों आहार अथवा चारों आहार का जावज्जीव सम्यक् परित्याग करने रूप प्रत्याख्यान-नियम वह भक्त परीक्षा है और उसको स्वीकार पूर्वक मरना वह पन्द्रहवाँ भक्त परीक्षा मरण कहलाता है। भक्त परीक्षा अवश्य सप्रतिकर्म है, अर्थात् इसमें शरीर की सेवा शुश्रूषादि कर सकते हैं। इस भक्त परिज्ञा मरण के सविचार और अविचार दो भेद हैं। उसमें पराक्रम वाले अर्थात् क्रिया के अभ्यास द्वारा जिस मुनि ने शरीर की संलेखना की हो उसे सविचार पर्वक होता है। और दसरा अविचार भक्त परीक्षा मरण, मत्यु नजदीक होने से संलेखना का समय पहुँचता न हो, ऐसे अपराक्रम वाले मुनि को होता है। वह अविचार भक्त परिज्ञा भी संक्षेप से तीन प्रकार की है-प्रथम निरुद्ध, दूसरी निरुद्धतर, और तीसरी परम निरुद्ध कहा है। उसका भी स्वरूप कहता हूँ। जो जंघा बल रहित और रोगों से दुर्बल शरीर वाला हो उसे प्रथम अविचार निरुद्ध भक्त परिज्ञा मरण कहा है। यह मरण में भी बाह्य, अभ्यंतर त्याग आदि विधि पूर्व में कही है, उसके अनुसार जानना और यह मरण भी प्रकाश-अप्रकाश दो प्रकार का है, जिससे लोग जानते हैं वह प्रकाश रूप अर्थात प्रकट रूप है, और लोग नहीं जानें वह अप्रकाश रूप समझना। और सर्प, अग्नि, सिंह आदि से अथवा शूल रोग, मूर्छा, विशूचिका आदि से आयुष्य को खत्म होता जानकर मुनि की वाणी जहाँ तक गँवाई नहीं (बंद नहीं हुई) और चित्त भी व्याक्षिप्त नहीं हुआ, वहाँ तक शीघ्र ही पास में रहे आचार्यादि के समक्ष अतिचारादि की आलोचना करना उसे दूसरा निरुद्धतर अविचार मरण कहा है। उससे भी पूर्व कहे अनुसार त्यागादि विधि यथायोग्य करने की होती है। और वात आदि रोग से जब साधु की वाणी रुक जाये, बोलने में असमर्थ हो, तब उसे तीसरा परम निरुद्ध अविचार नामक मरण जानना। आयुष्य को खत्म होता जानकर वह साधु उसी समय ही श्री अरिहंत, सिद्ध और साधुओं के समक्ष सर्व दोषों की आलोचना करें। इस तरह यह भक्त परिज्ञा श्रुतानुसार से कहा है ।।३५६२।। अब इंगिनीमरण को सम्यग् रूप से संक्षेप में कहता हूँ। इसमें प्रतिनियत (अमूक) भूमि भाग में ही अनशन क्रिया की इंगन अर्थात् चेष्टा या प्रवृत्ति करने की होने से वह चेष्टा इंगिनी कहलाती है, और उसके द्वारा जो मृत्यु होती हो, उसे इंगिनी मरण कहते हैं। वह चार प्रकार के आहार का त्याग करने वाले, शरीर की सेवा शुश्रूषा आदि प्रतिकर्म नहीं करने वाले, और इंगिनी अमुक देश में रहने वालो को ही होता है। भक्त परिक्षा में विस्तारपूर्वक जो उपक्रम ज्ञानपूर्वक प्रयत्न करने को कहा है, वही __152 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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