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परिकर्म विधि द्वार-उदायी राजा को मारने वाले की कथा
श्री संवेगरंगशाला उस समय विजयश्री ने उन्हें देख लिया और पहचान गयी। इससे कामाग्नि से जाज्वल्यमान हृदय वाली विविध प्रकार से उसे क्षोभित करने लगी। इस तरह प्रतिक्षण उस पापिनी से क्षोभित होते हुए उन्हें गुरुदेव के वचनों का स्मरण हो आया, परंतु वहाँ से आगे बढ़ने में वे मुनि असमर्थ थे। अतः 'किस तरह अपने प्राणों का त्याग करूँ?' ऐसा चिंतन कर रहे थे। तब उस प्रदेश में, उस समय पर परस्पर तीव्र विरोधि दो राजाओं ने एक दूसरे को देखा
और देखने मात्र से भयंकर युद्ध हुआ। उसमें अनेक सुभट, हाथी और घोड़े मरे। रुधिर का प्रवाह बहने लगा। इससे स्वपक्ष और परपक्ष के क्षय को देखकर दोनों राजाओं ने लड़ना बंद कर दिया, उसके बाद गीदड़, सियार आदि उन मुर्दो को भक्षण करने लगे, तब साधु ने विचार किया कि-मरने का और कोई उपाय नहीं है, इसलिए रणभूमि में रहकर गृध्रपृष्ठ मरण को स्वीकार करूँ। ऐसा निर्णय करके जब वह पापिनी कन्द-फल आदि लेने के लिए वहाँ से गयी, तब सब करने योग्य अनशन आदि करके वह महात्मा धीरे-धीरे जाकर उन मुर्दो के बीच में मुर्दे के समान गिरा और दुष्ट हिंसक प्राणियों ने उनका भक्षण किया। इस तरह अत्यन्त समाधि के कारण मरकर वह जयंत विमान में देवरूप में उत्पन्न हुआ, इस तरह उसने गृद्धपृष्ठ मरण की सम्यक् प्रकार से आराधना की। इस तरह तीन जगत में पूजनीय श्री जिनेश्वर भगवान ने निश्चय गाढ़ कारण से वेहायस और गृध्रपृष्ठ मरणों की भी आज्ञा दी है।
साधुवेष धारी घातक ने राजा को मारने से आचार्य ने शासन का कलंक रोकने के लिए शस्त्र ग्रहण किया था और अपने आप मरे थे ।।३५२४।। उसका भी दृष्टांत इस प्रकार है:
उदायी राजा को मारने वाले की कथा पाटलीपुत्र नगर में अत्यंत प्रचंड आज्ञा वाले जिसको सामंत समूह नमस्कार करता था ऐसा जगत प्रसिद्ध उदायी नाम से राजा था। उसने केवल अल्प अपराध में भी एक राजा का समग्र राज्य ले लिया था। इससे वह राजा जल्दी वहाँ से भाग गया फिर उसका एक पुत्र घूमता हुआ उज्जैनी नगरी में गया और प्रयत्नपूर्वक उज्जैनी के राजा की सेवा करने लगा। उस उज्जैनी के राजा को अनेक बार उदायी राजा को शाप देता देखकर उस राजपुत्र ने नमस्कार कर एकान्त में उन्हें विनम्र निवेदन किया-हे देव! यदि आप मेरे सहायक बनें तो मैं आपके शत्रु को मार दूं। राजा ने वह बात स्वीकार की और उसे महान आजीविका की व्यवस्था कर दी। इससे कंकजाति के, लोह की कटार लेकर, उसे अच्छी तरह छुपाकर उस उदायी राजा को मारने गया। मारने का कोई मौका नहीं मिलने से, अष्टमी, चतुर्दशी के दिन पौषध करते उदायी राजा को रात्री में धर्म सुनाने के लिए सूरिजी को राजमहल में जाते देखकर उसने विचार किया कि-मैं इन साधुओं का शिष्य होकर उनके साथ राजमहल में जाकर शीघ्र इष्ट प्रयोजन को सिद्ध करूँ। फिर कंक की कटारी को छुपाकर उसने दीक्षा स्वीकार की, और अत्यंत विनयाचार से आचार्य श्री को अत्यंत प्रसन्न किया। एक समय रात्री में पौषध वाले राजा को धर्म कथा सुनाने के लिए आचार्यश्री को जाते देखकर अति विनय भाव से गुप्तरूप में कटारी लेकर आचार्यश्री का संथारा आदि उपधि को हाथ में उठाकर आचार्यश्री के साथ में शीघ्र राजमंदिर में जाने के लिए चला। और 'चिर दीक्षित है, संयम का अनुरागी है तथा अच्छी तरह परीक्षित हुआ है।' ऐसा मानकर आचार्यश्री ने उसे नहीं रोका। इस तरह वे दोनों राजमहल में गये, और उसके बाद राजा को पौषध उच्चारण करवाकर दीर्घकाल तक धर्मकथा कहकर रात्री में आचार्यश्री सो गये। उनके समीप में ही राजा भी शीघ्र सो गया। फिर उनको गाढ़ नींद में सोये हुए जानकर वह दुष्ट शिष्य राजा के गले में उस कटारी को मारकर वहाँ से चल दिया। पहरेदार ने 'यह साधु है' ऐसा मानकर उसे जाते नहीं रोका। फिर कंक छुरी से छेदित हुए राजा के गले में से निकलते रक्त के अति प्रवाह से भिगे शरीर वाले आचार्यश्री
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