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श्रीसंवेगरंगशाला
परिकम विधि द्वार-जयसुंदर और सोमदत्त की कथा किसी समय उन्होंने श्री दमघोषसूरि के पास संसार का नाश करनेवाले श्री सर्वज्ञ कथित धर्म का श्रवण किया। इससे मरण, रोग, दुर्भाग्य, शोक, जरा आदि दुःखों से पूर्ण संसार को असार मानकर वैराग्य हुआ। उन दोनों भाइयों ने दोनों हाथ जोड़कर, मस्तक पर लगाकर गुरु समक्ष निवेदन किया कि-हे भगवंत! आपके पास दीक्षा को ग्रहण करेंगे। फिर गुरु ने सूत्रज्ञान के उपयोग से उनको भावि में अल्प विघ्न होने वाले हैं, ऐसा जानकर कहा कि-हे महानुभावों! आपको दीक्षा लेना उचित है, केवल स्त्रियों का तुम्हें महान उपसर्ग होगा, यदि प्राण का भोग देकर भी निश्चल तुम सम्यक् सहन करोगे तो तुम शीघ्र दीक्षा को स्वीकार करो और मोक्ष के लिए उद्यम करो। अन्यथा चढ़कर गिर जाने वाली क्रिया हास्य का कारण होती है। उन्होंने कहा कि-हे भगवंत! यदि हमें अल्प भी जीवन के प्रति राग होता तो हम सर्व विरति को स्वीकार करने की भावना नहीं करतें। अतः संसारवास से उदासीन आपके चरण-कमल की शरण स्वीकार की है और विघ्न में भी हम निश्चल रहेंगे, अतः आप हमें दीक्षा दें। उसके बाद दीक्षा देकर गुरु महाराज ने सर्व क्रिया की विधि में कुशल बनाया, और सम्यक्तया सूत्र अर्थ के श्रेष्ठ सिद्धान्त पढाया। चिरकाल गुरुकुलवास में रहकर एक समय महासत्त्व वाले उन्होंने अपने गुरुदेव की आज्ञा प्राप्त कर अकेले विहार किया। फिर अनियत विहार की विधिपूर्वक विचरते सम्यग् उपयोग वाले जयसुंदर मुनि किसी समय अहिछत्रा पुरी में पहुँचे।
वहाँ उस सेठ की जिस पुत्री से विवाह हुआ था, वह पापिनी सोमश्री असती के आचरण से उस समय गर्भवती हुई थी उसने सोचा था कि-यदि जयसुंदर यहाँ आये तो उनको दीक्षा का त्याग करवाकर अपना दुश्चरित्र छिपाऊँ। इधर भिक्षार्थ के लिए उस साधु ने नगर में प्रवेश किया और किसी तरह उसके समान दुराचारिणी पड़ौसी के घर में उसको देखा, शीघ्र घर में ले गयी और विनयपूर्वक चरणों में नमस्कार कर उसने कहा कि-हे प्राणनाथ! इस दुष्कर तपस्या से रुक जाओ और अब चारित्र को छोड़ दो ।।३५०० ।। हे सुभग! मैंने जिस दिन आपकी दीक्षा की बात सुनी उसी दिन मुझे वज्र के प्रहार से भी अधिक दुःख हुआ, और आपके वियोग से 'जीवन को आज त्यागें, कल छोडूं ऐसा विचार करती केवल आपके दर्शन की आशा से इतने दिन जीती रही। अब तो जीवन अथवा मृत्यु निःसंदेह आपके साथ ही होगा, तो हे प्राणनाथ! जो आपको रुचिकर हो उसे करो! उसके ऐसा कहने से पूर्व में जो गुरुदेव ने वचन कहा था वह याद आया और ऐसा धर्म विघ्न आया कि वह किसी भी उपाय से शान्त नहीं होने वाला जानकर, मोक्ष के एक बद्ध लक्ष्य वाले, अपने जीवन के लिए अत्यंत निरपेक्ष उस साधु ने कहा कि-हे भद्रे! जब तक मैं अपना कुछ कार्य करूँ तब तक एक क्षण तूं घर बाहर खड़ी रह, फिर 'जो तुझे हितकर और भविष्य में सुखकर हो' उसे मैं करूँगा। ऐसा सुनकर प्रसन्न मुख वाली, अत्यंत कपट रूप, दुराचार वाली, उसने उसके आदेश को तहत्ति पूर्वक स्वीकार करके घर के दरवाजे बंद करके बाहर खड़ी रही। और श्रेष्ठ धर्म ध्यान में प्रवृत्ति करने वाले साधु भी अनशन स्वीकारकर वेहायस मरण-अर्थात् गले में फाँसी लगाकर, ऊँचे लटककर विधिपूर्वक मरकर अच्युत देवलोक में उत्पन्न हुए। इसके बाद सारे नगर में बात फैल गयी कि 'इसने साधु को मार दिया है।' इससे पिता ने शीघ्र अपमानित करके अपने घर में से उसे निकाल दिया। अत्यंत स्नेह के कारण उसकी विजयश्री भी उसके साथ निकली, और प्रसूति दोष के कारण सोमश्री मार्ग में ही मर गयी।
फिर विजयश्री ने तापसी दीक्षा स्वीकार की और निरंकुशता से कंदमूल, आदि का भोजन करती तापसों के एक आश्रम में रहती थी। एक समय पूर्व मुनिवर के छोटे भाई वे सोमदत्त नाम के साधु विहार करते, वहाँ आये और विहार में तीक्ष्ण काँटे उनके पैरों में लगे, इससे चलने में असमर्थ बनें वहाँ किसी एक प्रदेश में बैठे।
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