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________________ परिकर्म विधि द्वार - जयसुंदर और सोमदत्त की कथा श्री संवेगरंगशाला पंडित मरण, और देश विरति धारण करने वाले की मृत्यु वह १० - बाल पंडित मरण जानना । मनःपर्यव, अवधि, श्रुत और मति ज्ञान वाला जो छद्मस्थ श्रमण मरता है वह ११ - छद्मस्थ मरण है और केवल ज्ञान प्राप्तकर मृत्यु होनी वह १२ - केवली मरण जानना । गृध्रादि के भक्षण द्वारा मरना वह १३ - गृध्रपृष्ठ मरण है, और फाँसी आदि से मरना वह १४ - वेहायस मरण है। इन दोनों मृत्यु की भी विशेष कारणों से अनुज्ञा दी है, क्योंकि आगाढ़ उपसर्ग में सर्व किसी तरह पार न उतरे, ऐसे दुष्काल में या किसी विशेष कार्य के समय में कृत योगी - ज्ञानी मुनि को अविधि से किया हुआ मरण भी शुद्ध माना गया है। इसलिए ही जयसुन्दर और सोमदत्त नामक दो श्रेष्ठ मुनियों ने वेहायस और गृध्रपृष्ठ मरण को स्वीकार किया था । । ३४६१ । । वह इस प्रकार है :जयसुंदर और सोमदत्त की कथा नरविक्रम राजा से रक्षित वैदेशा नगरी में सुदर्शन नामक सेठ था। उसके दो पुत्र थे, प्रथम जयसुंदर और दूसरा सोमदत्त । दोनों कलाओं में कुशल और रूप आदि गुणयुक्त थे। परस्पर स्नेह से परिपूर्ण चित्तवाले और उत्कृष्ट सत्त्व वाले वे दोनों इस लोक और परलोक से अविरुद्ध-उत्तम कार्यों में प्रवृत्ति करने वाले थें। एक समय में अधिक मूल्य का अनाज लेकर बहुत मनुष्य के परिवार सहित वे अहिछत्रा नगरी गये। वहाँ रहते परस्पर व्यापार करने से उनकी जयवर्धन सेठ के साथ सद्भावना युक्त मित्रता हो गयी। उस सेठ की सोमश्री और विजयश्री नामकी दो पुत्री थीं। उस सेठ ने उनको दीं, और विधिपूर्वक दोनों का विवाह किया। उसके बाद वे उन स्त्रियों के साथ सज्जनों के आनन्दनीय समयानुरूप पाँच प्रकार के विषय सुख भोगते वहाँ रहते थे। एक समय अपनी वैदेशा नगरी से आये हुए पुरुष ने उनको कहा कि 'अरे! आप शीघ्र घर चलो। इस तरह तुम्हारे पिता ने आज्ञा दी है। क्योंकि सतत् श्वास, खाँसी, आदि कई रोगों से पीड़ित वे शीघ्र तुम्हारे दर्शन करना चाहते हैं।' ऐसा सुनकर उन्होंने ससुर को वृत्तान्त कहकर, पत्नियों को वहीं रखकर, उसी समय पिता के पास पहुँचने के लिए शीघ्र चल दिये। अखण्ड प्रस्थान करते वे अपने घर पहुँचे, और वहाँ परिवार को शोक से निस्तेज मुख वाला शोकातुर देखा, घर भी शोभा रहित अति भयंकर श्मशान सदृश देखा और दीन अनाथों की दानशाला के लिए रोके हुए नौकरों से भी रहित देखा । हा! हा! इस दुःख का लम्बा श्वास लेते - हमारे पिता निश्चित मर गये 'हैं, इससे यह घर सूर्यास्त के बाद का कमल वन के समान आनन्द नहीं देता है। ऐसा विचार करते वे दासी के द्वारा दिये हुए आसन पर बैठे। इतने में अत्यंत शोक के वेग से अश्रुभीनी आँखोंवाले परिजनों ने पैर में नमनकर उनको पिता के मरण की अति शोकजनक बात संपूर्ण रूप से कही। इससे वे मुक्त कण्ठ से बड़ी आवाज से रोने लगे और परिवार ने मधुर वाणी द्वारा महा मुश्किल से रोते रोका। फिर उन्होंने कहा कि - बहुत प्रीति को धारण करने वाले पिता श्री निष्पुण्यक हमारे लिए क्या उपदेश देकर गये हैं? वह कहो। यह सुनकर शोक के भार से गद्गद वाणी वाले परिवार ने कहा कि - तुम्हारे दर्शन की अत्यंत अभिलाषा वाला 'वह मेरा पुत्र आयगा, तब उनके आगे मैं यह कहूँगा और वह कहूँगा' ऐसा बोलते पिताजी को हमने पूछा, फिर भी हमको कुछ भी नहीं कहा और अति प्रचण्ड रोग के वश तुम्हारे आने के पहले ही वे शीघ्र मर गये हैं। यह सुनकर कोई अकथनीय तीव्र संताप को वहन करते उन दोनों भाइयों जोर-शोर से रुदन किया - हा ! निष्ठुर यम ! तूंने पिता के साथ हमारा मिलाप क्यों नहीं करवाया ? और पापी हम भी वहाँ क्यों रुके रहे? इत्यादि विलाप करते और बार-बार सिर फोड़ते उन्होंने इस प्रकार रुदन किया कि जिससे मनुष्य और मुसाफिर भी रोने लगे। उसके बाद आहार पा को नहीं लेने से उनको परिजनों ने अनेक प्रकार से समझाया बुझाया तो वे चित्त बिना केवल परिजनों के आग्रह से सर्व कार्य करने लगे । Jain Education International For Personal & Private Use Only 149 www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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