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श्री संवेगरंगशाला
परिकर्म विधि द्वार-मरण विभक्ति नामक ग्यारवाँ द्वार
को प्राप्त किया था। तो हे जीव! तूं अपकार करनेवालों के प्रति थोड़ा भी द्वेष मत करना, और जो तेरे आधीन प्रशम सुख है, उसमें क्यों नहीं रमण करता? यदि तूंने उपधि समुदाय और गुरुकुल वास के राग को सर्वथा त्याग किया है, तो स्वयं नाशवान, असार शरीर में मोह किसलिए करता है? इस तरह धर्म ध्यान में मग्न उस महात्मा को उन्होंने तलवार की तीक्ष्ण धार से प्रहार कर मार दिया। महामुनि मरकर सर्वार्थ सिद्धि में देव रूप में उत्पन्न हुए। इस तरह पूर्व में कहा है कि 'त्यागी और निर्मम साधु लीलामात्र से प्रस्तुत प्रयोजन मोक्षादि को प्राप्त करते हैं वह यहाँ बतलाया।
इस तरह मन भ्रमर को वश करने के लिए मालती के माला समान और आराधना रूप संवेगरंगशाला के मूल प्रथम परिकर्म विधि द्वार में कहे हुए पन्द्रह अंतर द्वार वाला क्रमशः त्याग नाम का यह दसवाँ अन्तर द्वार कहा ।।३४४२।। ग्यारहवाँ मरण विभक्ति द्वार :
पूर्व में जो सर्व त्याग वर्णन किया है, वह मृत्यु के समय में संभव हो सकता है, इसलिए अब मैं मरण विभक्ति द्वार को कहता हूँ। उसमें
(१) आवीची मरण, (२) अवधि मरण, (३) आत्यंतिक (अन्तिय) मरण, (४) बलाय मरण, (५) वशात मरण, (६) अन्तःशल्य (सशल्य) मरण, (७) तद्भव मरण, (८) बाल मरण, (९) पंडित मरण, (१०) बाल पंडित मरण, (११) छद्मस्थ मरण, (१२) केवली मरण, (१३) वेहायस मरण, (१४) गृध्रपृष्ठ मरण, (१५) भक्त परीक्षा मरण, (१६) इंगिनी मरण और (१७) पादपोपगमन मरण। इस तरह गुण से महान गुरुदेवों ने मरण के सत्तरह विधि-भेद कहे हैं। अब उसका स्वरूप अनुक्रम से कहता हूँ।
प्रति समय आयुष्य कर्म के समूह की जो निर्जरा हो उसे १-आवीची मरण कहते हैं। नरक आदि जन्मों का निमित्त भूत आयुष्य कर्म के जिन दलों को भोगकर वर्तमान में मरता है। और पुनः उसी कर्मदल को उसी तरह भोगकर मरता है उस मृत्यु को २-अवधि मरण कहते हैं। नरकादि भवों में निमित्त भूत आयुष्य के समूह को भोगकर मरेगा, अथवा मरे हुए पुनः कभी भी उस दल को उसी तरह अनुभव करके नहीं मरता उसे ३अन्तिय अथवा आत्यंतिक मरण जानना। संयम योग से थके हुए भी उसी स्थिति में ही जो मरता है वह ४-बलाय मरण है। इन्द्रियों के विषयों के वश पड़ा हुआ जो उस विषयों के कारण मरता है वह ५-वशात मरण जानना। लज्जा से, अभिमान से अथवा बहुत श्रुतज्ञान होने के मद से जो अपने दुश्चरित्र को गुरु समक्ष नहीं कहते वे निश्चित आराधक नहीं होते हैं, ऐसे गारवरूप कीचड़ में फंसे हुए जो अपने अतिचारों को दूसरों के समक्ष नहीं कहते वे दर्शन, ज्ञान और चारित्र के विषय में अंतर में शल्य वाले होने से उसका ६-अन्तःशल्य (सशल्य) मरण होता है। इस सशल्य के मरण से मरकर जीव महाभयंकर दुस्तर और दीर्घ संसार अटवी में दीर्घकाल तक परिभ्रमण करता है। मनुष्य अथवा तिर्यंच भव के प्रायोग्य आयुष्य को बाँधकर उसी के लिए मरते तिर्यंच या मनुष्य को मृत्यु अर्थात् अनन्तर जन्म में उसीही तरहजन्म पास करने के लिए मरन, जसे-श्व मरण कहते हैं। अकर्म भूमि के मनुष्य, तिथंच, देव और नारकियों के सिवाय शेष जीवों में तद्भव मरण कई बार होता है, इन सात में अवधि बिना के आवीचि, आयंतिय, बलाय, वशाल और अन्तःशल्य पाँच ही मरण हैं, क्योंकि शेष अवधि और कहें जाने वाले बाल मरण आदि तो तद्भव मरण के अन्तर्गत जानना। तप, नियम, संयम आदि बिना अविरति वाले की मृत्यु वह ८-बाल मरण है। यम, नियम आदि सर्व विरति युक्त विरति वाले की मृत्यु वह ९1. उत्तराध्यन सूत्र के पांचवें अध्ययन की टीका में इन १७ मरण के भेदों का सविस्तार वर्णन है।
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