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________________ श्री संवेगरंगशाला नर्तयितुं संवेगं पुनर्गुणा लुप्तनृत्यमिव कलिना । संवेग - रंगशाला येन विशालव्यरचि रुचिरा ।। अर्थात् आचार्य श्री जिनचन्द्र सूरीश्वरजी ने कलिकाल से जिसका नृत्य लुप्त हो गया था, वैसे ही फिर मनुष्यों को संवेग का नृत्य कराने के लिए विशाल मनोहर संवेग रंगशाला नामक ग्रन्थ की रचना की है। इसी प्रकार १२९५ में सुमति गणि द्वारा रचित गणधर सार्धशतक की संस्कृत बृहद् वृत्ति में उल्लेख मिलता है तथा चन्द्र तिलक उपाध्याय द्वारा रचित वि.सं. १३१२ अभयकुमार चरित्र संस्कृत काव्य में इसी ग्रन्थ के विषय में दो पद्य मिलते हैं। इसी प्रकार और भी इस ग्रन्थ के विषय में उल्लेख मिलते हैं। वर्तमान काल में अन्तिम आराधना के लिए उपाध्याय श्री विनयविजयजी महाराज रचित पुण्य प्रकाश का स्तवन सुनाया जाता है, वह इस संवेग रंगशाला ग्रन्थ के ममत्व व्युच्छेद और समाधि लाभ विभाग का संक्षेप है। उसका अवलोकन करने से स्पष्ट प्रतीत होता है। पाटण, जेसलमेर आदि जैन शास्त्र भण्डारों में आराधना विषयक छोटे-बड़े अनेक ग्रन्थ मिलते हैं। उन सबमें प्राचीन और विशाल आधार यह संवेग रंगशाला - आराधना शास्त्र विदित होता है। इसकी कुल दस हजार तिरपन ( १०,०५३) प्राकृत गाथाएँ हैं। जीवन की सर्वश्रेष्ठ साधना, आराधना का मुख्य मार्ग का इसमें वर्णन किया है। इसे पढ़ने से वैराग्य की उर्मियाँ प्रवाहित होती हैं। वैराग्यबल जागृत होता है। त्यागी जीवन के अलौकिक आनन्द का पूर्णरूप से अनुभव होता है। परम हितकारक इस ग्रन्थ का पठन-पाठन, व्याख्यान, श्रवण करना इत्यादि से प्रचार करना परम आवश्यक है। तथा चतुर्विध श्री संघ के लिए यह ग्रन्थ स्व- परोपकारक है। परम पूज्य ग्रन्थकार महर्षि ने इस महान् ग्रन्थ में आगम रहस्य का अमृतपान तैयार किया है, उसकी महिमा परिपूर्ण रूप में समझाने की अथवा वर्णन करने की सामर्थ्य मुझमें नहीं है। परम पूज्य आचार्यदेव श्रीविजयभद्रंकर सूरीश्वरजी महाराज के गुजराती अनुवाद का ही अनुकरण कर मैंने एक श्रुतज्ञान की उपासना की भावना से यह शुभ उद्यम किया है। फिर भी इसमें छद्मस्थता के कारण कोई क्षति अथवा शास्त्र विरुद्ध लिखा गया हो, तदर्थ त्रिविध-त्रिविध मिच्छा मि दुक्कडं देता हूँ। वाचक वर्ग उस भूल को सुधारकर पढ़ें। अन्त में सभी पुण्यशाली आत्माएँ महारसायन के अमृतपान समान इस महाग्रन्थ का वांचन, चिन्तन, मनन कर आराधना में विकास साधकर परम शान्ति-जनक संवेगमय समाधि प्राप्तकर अजरामर रूप बनें। यही एक हार्दिक शुभ मंगल कामना है। वि.सं. २०४१ फाल्गुण चौमासा, दि. ६-३-८५ 4 Jain Education International प्रवेशक विषय प्रेमी के लिए कोई कार्य अकार्य नहीं होता । विषय विमुख से कोई अकार्य नहीं होता । For Personal & Private Use Only पंन्यास पद्मविजय छोटी दादावाड़ी, दिल्ली -जयानंद www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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