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________________ परिकर्म द्वार - विनय द्वार - विनय पर श्रेणिक राजा की कथा श्री संवेगरंगशाला धर्म गुरु का अविनय से यदि पराभव करता है तो उसे वह अच्छी तरह ग्रहण की हुई भी विद्या लाभदायक नहीं होती है । परन्तु दुःखरूप फल देने वाली होती है, और यदि गुरु ने उपदेश दिये हुए विनय को, हितशिक्षा को, भावपूर्वक स्वीकार करता है, उस पर आचरण करता है, तो वह मनुष्य सर्वत्र विश्वासपात्र, तत्त्वातत्त्व का निर्णय करने वाला और विशिष्ट बुद्धि को प्राप्त करता है। कुशल पुरुष साधु अथवा गृहस्थ के विनय की प्रशंसा करते हैं। क्योंकि सर्व गुणों का मूल विनय है अविनीत मनुष्य लोक में कीर्ति और यश को प्राप्त नहीं करता है। कई विनय को जानते हुए भी कर्म विपाक के दोष से राग द्वेष के आधीन पड़े हुए लोग विनय करना नहीं चाहते हैं। विनय लक्ष्मी का मूल है, विनय समस्त सुखों का मूल है, विनय निश्चय धर्म का मूल है और विनय कल्याणमोक्ष का भी मूल है । । १६०६ ।। विनय रहित का सारा अनुष्ठान निरर्थक है, विनय वाले का वह सारा अनुष्ठान सफलता को प्राप्त करता है। तथा विनय रहित को दी हुई सारी विद्या- शिक्षा भी निरर्थक जाती है। शिक्षा का फल विनय और विनय का फल सर्व में मुख्यता है । विनय से दोष भी गुणस्वरूप बनते हैं। अविनीत के गुण भी दोष रूप होते हैं। सज्जनों के मन को रंजन करने वाली मैत्री भी विनय से होती है। माता-पिता भी विनीत को सम्यग् गुरुत्व रूप देखते हैं और खेदजनक है कि अविनीत को माता-पिता भी शत्रुरूप देखते हैं। विनयोपचार करने से अदृश्य रूप देवादि भी दर्शन देते हैं, अविनय से नाराज हुए पास में रहे भी वे शीघ्र दूर जाते हैं । प्रसूत गाय अपने बछड़े को देखकर जैसे अति प्रसन्न होती है, वैसे पत्थर के समान कठोर हृदय वाला और तेजोद्वेषी - असहिष्णु मनुष्य भी विनय से शीघ्र प्रसन्न होता है । विनय से विश्वास, विनय से सफल प्रयोजन की सिद्धियाँ और विनय से ही सर्व विद्याएँ भी सफल बन जाती हैं। गुरु का पराभव करने वाली बुद्धि रूपी दोष से ग्रसित सुशिक्षित होने पर भी अविनीत व्यक्ति की विद्या नाश होती है। कदाच वह विद्या नाश न हो तो भी गुणकारक नहीं होती है। अविनीत को विद्या दान देने से गुरु भी उपालम्भ प्राप्त करता है, अपने कार्य को नष्ट करता है और अविनीतपने से स्वयं विनाश को भी प्राप्त होता है। तथा अच्छे कुल में जन्मी हुई कुल बालिका श्रेष्ठ पति को स्वीकारकर समान पति के बल को प्राप्त करती है, वैसे विनयवान पुरुष को ग्रहण की हुई विद्या भी बलवान बनती है। गुरु का पराभव करने वाले दुर्विनीत में विद्या प्रवेश नहीं करती है श्रेणिक राजा के समान । जब वही श्रेणिक राजा विनीत बनता है तब उसमें विद्या प्रवेश करती है ।। १६१७ ।। उसका दृष्टान्त इस प्रकार है : विनय पर श्रेणिक राजा की कथा राजगृह नगर में इन्द्र के समान प्रशंसा फैलाने वाला सम्यक्त्व की स्थिरता में दृढ़ अभ्यासी और वैसी ही बुद्धि वाला श्रेणिक नामक राजा राज्य करता था। उसकी सब रानियों में मुख्य चेलणा नामक रानी और चार प्रकार की बुद्धि से समृद्धशाली अभयकुमार नाम का उनका ही पुत्र मन्त्री था । एक समय रानी ने राजा से कहा- मेरे लिए एक स्तम्भ वाला महल बनाओ, रानी के अति आग्रह से संतप्त हुए राजा ने उसकी बात स्वीकार की और अभय कुमार को वह कार्य करने का आदेश दिया। उसके बाद मन्त्री अभय कुमार स्तम्भ के लिए सुथार को साथ लेकर अटवी में गया और वहाँ हरा, अति बड़ी शाखाओं वाला एक वृक्ष देखा। अभयकुमार यह देव से अधिष्ठित वृक्ष होगा, ऐसा मानकर उपवास करके विविध पुष्पों और धूपों से उस वृक्ष को अधिवासित किया। फिर उसकी बुद्धि से प्रसन्न हुए उस वृक्ष में रहनेवाले यक्ष देव ने रात्री के अन्दर सोये हुए अभय को कहा है महानुभाव! इसका तूं छेदन मत करना, तूं अपने घर जा, मैं सर्व ऋतु के वृक्ष, फल और पुष्पों से मनोहर बाग से सुशोभित, एक स्तम्भवाला महल बना दूँगा । देव के मना करने पर अभय कुमार सुथार को लेकर अपने स्थान पर पहुँचा, और देव ने आरामदायक महल बनाया। उस महल में रानी के साथ विविध क्रीड़ा करते प्रीतिरूप 1. विणओ सिरीण मूलं विणओ मूलं समत्थ सोक्खाणं । विणओ हु धम्ममूलं विणओ कल्लाणमूलं ति ।।१६०६ ।। Jain Education International For Personal & Private Use Only 73 www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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