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ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार-अवंतीनाथ और नरसुंदर की कथा श्री संवेगरंगशाला भ्रष्ट हुए हो, और प्रजा विरोधी बनी है, फिर तुम शत्रुओं का अहित करने की चिंता कैसे करते हो? अतः उत्सुकता को छोड़ दो, हम ताम्रलिप्ति नगर में जाकर वहाँ दृढ़ स्नेहवाले नरसुंदर राजा को मिलेंगे। इस बात को राजा ने स्वीकार किया और चलने का प्रारंभ किया। दोनों चलते क्रमशः ताम्रलिप्ति नगर की नजदीक सीमा में पहुँच गये। फिर रानी ने कहा कि-हे राजन्! आप इस उद्यान में बैठो और मैं जाकर अपने भाई को आपके आगमन का समाचार देती हूँ कि जिससे वह घोड़े, हाथी, रथ और योद्धाओं की अपनी महान् ऋद्धि सहित सामने आकर आपका नगर प्रवेश करवायेगा। राजा ने 'ऐसा ही हो' ऐसा कहकर स्वीकार किया। रानी राजमहल में गयी और वहाँ नरसुंदर को सिंहासन ऊपर बैठा हुआ देखा, अचानक आगमन देखकर विस्मय मनवाले उसने भी उचित सत्कारपूर्वक उससे सारा वृत्तान्त पूछा। उसने भी सारा वृत्तान्त कहकर कहा कि राजा अमुक स्थान पर बिराजमान है, इससे वह शीघ्र सर्व ऋद्धिपूर्वक उसके सामने जाने लगा।
___ इधर उस समय अवंतीनाथ राजा भूख से अतीव पीड़ित हुआ। अतः खरबूजा खाने के लिए चोर के समान पिछले मार्ग से खरबूजे के खेत में प्रवेश किया। खेत के मनुष्यों ने देखा और निर्दयता से उस पर लकड़ी का प्रहार मर्म स्थान पर किया। कठोर प्रहार से बेहोश बना वह लकड़े के समान चेतन रहित मार्ग के मध्य भाग में जमीन के ऊपर गिरा ।।५१४७।। उस समय श्रेष्ठ विजय रथ में, नरसुंदर राजा बैठकर उसे मिलने के लिए उस प्रदेश में पहुँचा, परंतु चपल घोड़ों के खूर के प्रहार से उड़ती हुई धूल से आकाश अंधकारमय बन गया और प्रकाश के अभाव में राजा के रथ की तीक्ष्ण चक्र के आरे ने अवंतीनाथ के गले के दो विभाग कर दिये अर्थात् रथ के चक्र से राजा का सिर कट गया। फिर पूर्व में कहे अनुसार स्थान पर बहनोई को नहीं देखने से राजा ने यह वृत्तान्त बंधुमति को सुनाया। भाई के संदेश को सुनकर, हा, हा! दैव! यह क्या हुआ?' ऐसे संभ्रम से घूमती चपल आँखों वाली बंधुमति शीघ्र वहाँ पहुँची। फिर गुम हुए रत्न की जैसे खोज करते हैं वैसे अति चकोर दृष्टि से खोज करती उसने महामुसीबत से उसे उस अवस्था में देखा। उसे मरा हुआ देखकर वज्र प्रहार के समान दुःख से पीड़ित और मूर्छा से बंध आँख वाली वह करुणा युक्त आवाज करती पृथ्वी के ऊपर गिर गयी। पास में रहे परिवार के शीतल उपचार करने से चेतना में आयी और वह जोर से चिल्लाकर इस प्रकार विलाप करने लगी-हा, हा! अनुपम पराक्रम के भंडार! हे अवंतीनाथ! किस अनार्य पापी ने तुझे इस अवस्था को प्राप्त करवाया है, अर्थात् मार दिया? हे प्राणनाथ! आपका स्वर्गवास हो गया है, पुण्य रहित अब मुझे जीने रहने से कोई भी लाभ नहीं है। हे हतविधि! राज्य लूटने से, देश का त्याग करने से और स्वजन का वियोग करने पर भी तूं क्यों नहीं शांत हुआ? कि हे पापी! तूंने इस प्रकार का उपद्रव किया? हे नीच! हे कठोर आत्मा! हे अनार्य हृदय! तूं क्या वज्र से बना है? कि जिससे प्रिय के विरह रूपी अग्नि से तपे हुए भी अभी तक तेरा नाश नहीं हुआ? वह राज्य लक्ष्मी और भय से नमस्कार करते छोटे राजाओं का समूह युक्त, वे मेरे स्वामी, अन्य कोई स्त्री को ऐसा प्रेम प्राप्त न हुआ हो ऐसा मनोहर उनका मेरे में प्रेम था। उसकी आज्ञा का प्रभुत्व और सर्व लोक को उपयोगी उस धन को धिक्कार हो, जो मेरा सारा सुख गंधर्वनगर के समान एक साथ नाश हो गया। आज तक आपके आनंद से झरते संदर मख चंद्र को देखने वाली अब अन्य के क्रोध से लाल मख को मैं किस तरह देख सकँगी? अथवा आज दिन तक आपकी मेहरबानी द्वारा विविध क्रीड़ाएँ की हैं, अब कैदखाने में बंद हुए शत्रु की स्त्री के समान में पर के घर में किस तरह रहूँगी? इत्यादि विलाप करती पुष्ट स्तन पृष्ठ को हाथ से जोर से मारती, बिखरे हुए केश वाली, भुजाओं के ऊपर से वस्त्र उतर गया था और कंकण निकल गये, लम्बे समय तक आत्मा में कोई अति महान् शोक समूह को धारण किया। उस समय नरसुंदर राजा ने अनेक प्रकार के वचनों से समझाया, फिर भी
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