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श्री संवेगरंगशाला
ममत्य विच्छेदन द्वार-सूरतेज राजा का प्रबंध-(अवंतीनाथ और वरसुंदर की कथा) जाति कुल वाला भी पाँच इन्द्रिय की पटुता, आरोग्यता आदि गुण समूह से रहित, छाया पुरुष (पड़छाया) के समान वह कुछ भी शुभ कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकता है। रूप और आरोग्यता प्राप्त करने पर भी पानी के बुलबुले के समान अल्प आयुष्य वाला वह जीव चिरकाल तक स्थिरता को प्राप्त नहीं कर सकता है। दीर्घ आयुष्य वाला भी बुद्धि के अभाव और धर्म श्रवण की प्राप्ति से रहित, हितकर प्रवृत्ति से विमुख और काम से अत्यंत पीड़ित कई मूढ पुरुष तत्त्व के उपदेशक उत्तम गुरु महाराज को वैरी समान अथवा दुर्जन लोक के समान मानते हुए दिन रात विषयों में प्रवृत्ति करते है और इस तरह प्रवृत्ति करने वाला तथा विविध आपत्तियों से घिरा हुआ अवंतीराज के समान मनुष्य भव को निष्फल गँवाकर मृत्यु को प्राप्त करता है। और अन्य उत्तम जीव चतुर बुद्धि द्वारा, विषय जन्य सुख के अनर्थों को जानकर शीघ्र ही नर सुंदर राजा के समान धर्म में अति आदर वाले बनते हैं। इसे सुनकर विस्मित हृदयवाले सूरतेज राजा ने पूछा कि-हे भगवंत! यह अवन्तीनाथ कौन है? अथवा वह नर सुंदर राजा कौन है? गुरु महाराज ने कहा-हे राजन्! मैं जो कहता हूँ उसे तुम ध्यानपूर्वक सुनो।
अवंतीनाथ और नरसुंदर की कथा पृथ्वीतल की शोभा समान ताम्रलिप्ती नाम की नगरी थी, उसमें क्रोध से यम, कीर्ति से अर्जुन के समान और दो भुजाओं से बलभद्र सदृश एक होने पर भी अनेक रूप वाला नरसुंदर नामक राजा था। उसे रति के समान अप्रतिम रूप वाली, लक्ष्मी के समान श्रेष्ठ लावण्य वाली एवं दृढ़ स्नेहवाली बंधुमति नाम की बहन थी। विशाला नगरी के स्वामी अवंतीनाथ के राजा ने प्रार्थनापूर्वक याचनाकर परम आदरपूर्वक उससे विवाह किया। फिर उसके प्रति अति अनुराग वाला वह हमेशा सुरापान के व्यसन में आसक्त बनकर दिन व्यतीत करने लगा। उसके प्रमाद दोष से राज्य और देश में जब व्यवस्था भंग हुई तब प्रजा के मुख्य मनुष्यों और मंत्रियों ने श्रेष्ठ मंत्रणा करके उसके पुत्र को राज्य गद्दी पर स्थापन कर राजा को बहुत सुरापान करवाकर रानी के साथ में पलंग पर सोये हुए को संकेत किए अपने मनुष्यों के द्वारा उठवाकर सिंह, हरिण, सूअर, भिल्ल और रीछों से भरे हुए अरण्य में फेंक दिया और राजा के उत्तराचल वस्त्र के छेडे पर वापिस नहीं आने का निषेध सचक लेख (पत्र) बाँध दिया।
प्रभात में जागृत हुआ और मद रहित बने राजा ने जब पास में देखा, तब वस्त्र के छेड़े पर एक पत्र देखा और उसे पढ़कर, उसके रहस्य को जानकर क्रोधवश ललाट पर भृकुटी चढ़ाकर अति लाल दृष्टि फेंकते और दांत के अग्रभाग से होंठ को काटते रानी से इस प्रकार कहने लगा-हे सुतनु! जिसके ऊपर हमेशा उपकार किया है, हमेशा दान दिया है, हमेशा मेरी नयी-नयी मेहरबानी से अपनी सिद्धियों को विस्तारपूर्वक सिद्ध करने वाले, अपराध करने पर भी मैंने हमेशा स्नेहयुक्त दृष्टि से देखा, उनके गुप्त दोषों को कदापि जाहिर नहीं किया और संशय वाले कार्यों में सदा सलाह लेने योग्य भी उन पापी मंत्री. सामंत और नौकर आदि ने इस तरह अपने कलक्रम के अनुरूप प्रपंच किया है, उसे तूंने देख लिया? मैं मानता हूँ कि-उन पापियों ने स्वयंमेव मृत्यु के मुख में प्रवेश करने की इच्छा की है, अन्यथा उनको स्वामी द्रोह करने की बुद्धि कैसे जागृत होती? अतः निश्चय मैं अभी ही उनके मस्तक को छेदनकर भूमि मण्डल को सजाऊँगा, उनके मांस से निशाचरों को भी पोषण करूँगा और उनके खून से व्यंतरियों के समूह की प्यास दूर करूँगा। हे सुतनु! यम के समान क्रोधायमान मुझे इसमें क्या असाध्य
___ इस तरह बोलते अपने भाग्य के परिणाम का चिंतन नहीं करते राजा को, मधुर वाणी से बन्धुमति ने विनती की कि-हे देव! आप प्रसन्न हों, क्रोध को छोड़ दो, शान्त हो जाओ, अभी यह प्रसंग उचित नहीं है, समय के उचित सर्व कार्य करना अति हितकर होता है। हे नाथ! आप इस समय बिना सहायक के हो, श्रेष्ठ राज्य से
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