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________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार-सूरतेज राजा का प्रबंध पतंगे के समान पति के साथ में वह ज्वालाओं से व्याप्त चिता की अग्नि में गिर गयी। उस समय संवेग प्राप्तकर नरसुंदर राजा चिंतन करने लगा कि-अचिन्त्य रूप वाली संसार की इस स्थिति को धिक्कार हो कि जहाँ केवल थोड़े से काल के अंदर ही सुखी भी दुःखी हो जाता है, राजा भी रंक हो जाता है, उत्तम मित्र भी शत्रु और संपत्ति भी विपत्ति रूप में बदल जाती है। बहन का बहुत लम्बे काल के बाद अचानक समागम किस तरह हुआ और शीघ्र वियोग भी कैसा हुआ? इस संसारवास को धिक्कार हो! मैं मानता हूँ कि-इस संसार में सर्व पदार्थ हाथी के कान, इन्द्र धनुष्य और बिजली की चपलता से युक्त हैं, इस कारण से देखते ही वह क्षण में नाश होता है। संसार इस प्रकार का होने से परमार्थ के जानकार पुरुष विश्वास पूर्वक अपने घर में एक क्षण भी कैसे रह सकते हैं? अहो! उनकी यह कैसी महान् कठोरता है? इस प्रकार संसार से विरागी बना हुआ वह महात्मा अपने राज्य पर पुत्र को स्थापन करके शुभ भाव में प्रवृत्ति करने लगा और श्री सर्वज्ञ शासन में अपूर्व बहुत मान को धारण करते आयुष्य पूर्ण कर ब्रह्मदेवलोक में देदीप्यमान कांतिवाला देव हुआ, उसके बाद उत्तरोत्तर विशुद्धि के कारण से कई जन्मों तक मनुष्य और देव की ऋद्धि को भोगकर परम सुख वाले मुक्ति पद को प्राप्त किया। इस तरह हे राजन्! तुमने जो अवंतीनाथ का और नरसुंदर राजा का चरित्र पूछा था वह संपूर्ण कहा और इसे सुनकर हे सूरतेज! शत्रु के पक्ष के सर्व अशुभ कर्त्तव्य को छोड़कर, कोई ऐसी उत्तम प्रवृत्ति करो कि जिससे हे सूरतेज! तूं देवों में तेजस्वी बनें ।।५१७६ ।। गुरु महाराज से ऐसा उपदेश सुनने पर राजा का संवेगरंग अत्यंत बढ़ गया और रानी के साथ गुरु के पास दीक्षा स्वीकार की। सूत्र अर्थ को जानकर प्रतिदिन शुभ भावना बढ़ने लगी। अतिचार रूपी कलंक से रहित निरतिचार साधु जीवन के रागवाले, छट्ठ-अट्ठम आदि कठोर तपस्या में एक बद्ध लक्ष्य वाले उन दोनों के दिन अप्रमत्त भाव से व्यतीत होने लगे। एक समय वे महात्मा विविध दूर देशों में विहार करते हुए हस्तिनापुर नगर में पधारें और अवग्रह (मकान मालिक) की अनुमति लेकर एक गृहस्थ के स्त्री, पशु, नपुंसक रहित घर में वर्षा ऋतु में निवास करने के लिए रहे। वह साध्वी भी विहार करते उसी नगर में उचित स्थान में चौमासा करने के लिए रही। साधु धर्म का पालन करते विशुद्ध चित्तवाले उनका उस नगर में जो वृत्तान्त बना वह कहते हैं। ५१८३।। वहाँ अपने धन समूह से कुबेर के वैभव को भी जीतने वाला विष्णु नाम का धनपति था। उसको कामदेव के समान रूप वाला, सर्व कलाओं में कुशल विविध विलासों का स्थान, निर्मल शीयल वाला 'दत्त' नाम से प्रसिद्ध पुत्र था। वह एक दिन बुद्धिमान मित्रों के साथ नृत्यकार का नाटक देखने गया। वहाँ विकासी नील कमल के समान लम्बी नेत्रों वाली तथा साक्षात् रति सदृश नट की पुत्री को उसने देखा और उसके प्रति प्रेम जागृत हुआ। इससे उसी समय जीवन तक के अपने कुल के काले कलंक का विचार किये बिना, लज्जा को भी दूर फेंककर, घर जाकर उसका ही स्मरण करते योगी के समान सर्व प्रवृत्ति को छोड़कर पागल के समान और मूर्च्छित के सदृश घर के एक कोने में वह एकान्त में बैठा, उस समय पिता ने पूछा कि-हे वत्स! तूं इस तरह अकाल में ही हाथ-पैर से कमजोर, चंपक फल के समान शोभा रहित निराश क्यों दिखता है? क्या किसी ने तेरे पर क्रोध किया है, रोग से, अथवा क्या किसी ने अपमान किया है या किसी के प्रति राग होने से, हे पुत्र! तूं ऐसा करता है? अतः जो हो वह कहो, जिससे मैं उसकी उचित प्रवृत्ति करूँ। तब दत्त ने कहा कि-पिताजी! कोई भी सत्य कारण मैं नहीं जानता, केवल अंतर से पीड़ित होता हूँ, इस तरह अज्ञान का अनुभव करता हूँ। इससे सेठ बहुत व्याकुल हुआ और उसकी शांति के लिए अनेक उपाय किये, परंतु थोड़ा भी लाभ नहीं हुआ। फिर सेठ 222 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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