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ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार- सूरतेज राजा का प्रबंध
श्री संवेगरंगशाला को पुत्र के मित्रों ने नाटक में नटपुत्री के प्रति राग उत्पन्न हुआ है, वह सारा वृत्तान्त कहा। इससे सेठ विचार करने लगा कि
अहो! दोष को रोकने के लिए समर्थ कुलीनता और सुंदर विवेक विद्यमान है, फिर भी जीव को कोई ऐसा जोर का उन्माद उत्पन्न होता है कि जिससे वह गुरुजनों को, लोक-लज्जा को, धर्म-ध्वंस को, कीर्ति को बंधुजन और दुर्गति में गिरने रूप सर्वनाश को भी नहीं गिनता है। तो अब क्या करूँ? इस तरह सोचता हुआ मूढ़ हृदय वाले इसका कोई उपाय नहीं है कि जिससे उभय लोक में विरुद्ध न हो। फिर भी उत्तम कुल में जन्म लेने वाली मनोहर रूप रंगवाली अन्य कन्या को बतलाऊँ कि जिससे किसी भी तरह उसका मन नट की पुत्री से रुक जाय। ऐसा सोचकर अनेक कन्याएँ उसे बतलाई, परंतु नट की कन्या में आसक्त हुआ उसने उनके सामने देखा ही नहीं। इस कारण से यह पुत्र सुधारने के लिए अयोग्य है, ऐसा मानकर सेठ ने दूसरे उपाय की उपेक्षा की। बाद में निर्लज्ज बनकर उसने नटों को धन देकर उस कन्या विवाह किया। इससे 'अहो! अकार्य किया है।' ऐसा लोकापवाद सर्वत्र फैल गया और उसे कोई नहीं रोक सका ।।५२०० ।।
फिर मनुष्यों के मुख से परस्पर वह बात फैलती हुई सूरतेज मुनि ने सुनी और रागवश अल्प विस्मयपूर्वक मुनिश्री ने कहा कि - निश्चय राग को कोई असाध्य नहीं है, अन्यथा उत्तम कुल में जन्म लेकर भी वह बिचारा इस प्रकार का अकार्य करने में कैसे उद्यम करता? उस समय पर वहाँ वंदन के लिए वह साध्वी भी आई थी, यह वृत्तान्त सुनकर अल्प द्वेषवश कहा कि -अरे! नीच मनुष्यों की बात करने से क्या लाभ है? अपने कार्य साधने में उद्यम करो! कामांध बने हुए को अकार्य करना सुलभ ही है, इसमें निंदा करने योग्य क्या है? इस तरह परस्पर बात करने से मुनि को सूक्ष्म राग और साध्वी को सूक्ष्म द्वेष हुआ। इस कारण से नीच गोत्र का बंध किया और प्रमाद के आधीन उन्होंने गुरु महाराज के पास सम्यग् आलोचना बिना ही दोनों अंत में अनशन करके मर गये, और केसर कपूर समान अति सुगंध के समूह से भरे हुए सौधर्म देवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुए । वहाँ पाँच प्रकार के विषय सुखों को भोगते सूरतेज का जीव अपना आयुष्य पूर्ण कर बड़े धनवान वणिक के घर पुत्र रूप में जन्म लिया और देवी ने भी नट के घर में पुत्री रूप में जन्म लिया। दोनों ने योग्य उम्र में कलाएँ ग्रहण कीं। फिर उन दोनों ने यौवनवय को प्राप्त किया, परंतु किसी तरह सूरतेज के जीव को युवतियों में और उस नट कन्या को पुरुष प्रति राग बुद्धि नहीं हुई। इस प्रकार उनका काल व्यतीत होते भाग्य योग से एक समय किसी कारण उनका मिलाप हुआ और परस्पर अत्यंत राग उत्पन्न हुआ। इससे कामाग्नि से जलते उस दत्त के समान माता, पितादि स्वजनों के रोकने पर भी लज्जा छोड़कर नट को बहुत दान देकर उस नट कन्या के साथ विवाह किया और घर को छोड़कर उन नटों के साथ घूमने लगा। बहुत समय दूर देश परदेश में घूमते उसे किसी समय मुनि का दर्शन हुआ और मुनि दर्शन का उहापोह ( चिंतन) होने से पूर्व जन्म का ज्ञान स्मरण हुआ। इससे पूर्व जन्म के ज्ञान वाले उस महात्मा ने (सूरतेज के जीव ने) विषय राग को छोड़कर दीक्षा को स्वीकार की और शुद्ध आराधना करके अंत में मरकर देवलोक में उत्पन्न हुए ।।५२१५।।
इस तरह आलोचना बिना का अल्प भी अतिचार, हित को नाश करने में समर्थ और परिणाम में दुःखदायी जानकर हितकर बुद्धि वाला जीव पूर्व में कही विधि के अनुसार उत्तम प्रकार से आत्मा की शुद्धि (आलोचना) करे कि जिससे शुक्ल ध्यान रूपी अग्नि से सारे कर्मरूपी वन को जलाकर लोक के अग्रभागरूपी चौदह राजपुरुष के मस्तक का मणि सिद्ध, बुद्ध, निरंजन, सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, अनंत सुख और अनंत वीर्य वाला, अक्षय, निरोगी, शाश्वत, कल्याणकारी, मंगल का घर और अजन्म बना हुआ वह पुनः जहाँ से संसार में नहीं
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