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________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-दूसरा शय्या द्वार-दो तोतों की कथा आना है, ऐसे उपद्रव रहित मुक्ति रूपी स्थान को प्राप्त करता है। इस प्रकार से प्रवचन (आगम) समुद्र के पारगामी और चारित्र शुद्धि के लिए प्रायश्चित्त की विधि के जानकार वह आचार्य उस आराधक को समझाकर दोष मुक्त विशुद्ध करें। आराधना की इच्छा वाले तपस्वी आचार्य श्री के अभाव में उपाध्याय आदि के पास आत्मा की शुद्धि करें। यदि किसी तरह भी सेवन किये अतिचार भूल गये हों तो उस विषय में शल्य के उद्धार के लिए इस प्रकार से कहना कि-श्री जिनेश्वर भगवंत जिस-जिस विषय में मेरे अपराधों को जानते हैं, उन अतिचारों की सर्व भाव से तत्पर मैं आलोचना करता हूँ। इस तरह आलोचना करते गारव रहित विशुद्ध परिणाम वाला आत्मा विस्मृत हुए भी अपराधजन्य पाप समूह का नाश करता है। इस तरह दुर्भेद पाप को धोने में जल के विभ्रम समान और संविज्ञ मन रूपी भ्रमर के लिए खिले हुए फूलों के वन समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला ममत्व विच्छेद नाम का तीसरे मूल द्वार में आलोचन विधान नामक प्रथम मूल द्वार पूर्ण हुआ। अब पूर्व में कहे अनुसार विधि से प्रायश्चित्त (शुद्धि) करने पर भी जिसके बिना क्षपक मुनि समाधि को प्राप्त नहीं करता है, उस शय्या द्वार को कहता हूँ ।।५२२७।। दूसरा शय्या द्वार : ___ शय्या, वसति (आश्रय) कहलाती है। आराधक के लिए योग्य वसति होनी चाहिए। उसके आस-पास कठोर कर्म करने वाले चोर, वेश्या, मछुआ, शिकार करने आदि पापी तथा हिंसक, असभ्य बोलने वाले, नपुंसक और अति व्यभिचारी आदि पड़ोसी रहते हों, उस स्थान को स्वीकार न करें। क्योंकि इस प्रकार की वसति में रहने से क्षपक मुनि को उनके अनुचित शब्दादि सुनने या देखने आदि से समाधि में व्याघात हो जाता है। सुंदर भावयुक्त बुद्धि वालों की भी कुत्सित की संगति से भावना बदल जाती है, इस कारण से ही पापी के संसर्ग का निषेध किया है। तिर्यंच योनि वालों में भी अशुभ संसर्ग से दोष और शुभ संसर्ग से गुण प्रकट होते हैं। इस विषय में पर्वत के दो तोतों का दृष्टांत है ।।५२३२।। वह इस प्रकार : दो तोतों की कथा विन्ध्याचल नामक महान् पर्वत के समीप में बहने वाली हजारों नदियों से रमणीय, कुलटा के समान, वृक्षों से घिरी हुई कादम्बरी नामक अटवी थी। उसमें नीम, आम, जामुन, नींबू, साल, वास, बील वृक्ष, शल्ल, मोच, मालु की लताएँ, बकुल, कीकर, करंज, पुन्नाग, नागश्री, पर्णी, सप्तपर्ण आदि विविध नाम वाले, पुष्ट गंध वाले पुष्पों से भरे हुए वृक्षों का समूह शोभायमान था। वहाँ एक बड़े वृक्ष के खोखर में एक मैना ने सुंदर संपूर्ण शरीर वाले दो तोतों को उचित समय पर जन्म दिया। फिर प्रतिदिन पांख के पवन से सेवन करती और दाने को खिलाती उन दोनों को बड़ा किया। फिर किसी दिन थोड़े उड़ने की शक्ति प्राप्त होने से वे दोनों जब चपल स्वभाव से उड़कर वहाँ से अन्यत्र जाने लगे तब पंखों की निर्बलता के कारण थक जाने से अर्ध मार्ग में नीचे गिर गये। उस समय उस प्रदेश में तापस आये थे, उनमें से एक को अपने साथ आश्रम में ले गये और दूसरे को भिल्ल, चोर की पल्ली में ले गये। उसमें चोर की पल्ली में रहने वाला तोता हर समय भिल्लों के 'मारो, काटो, तोड़ो, इसका मांस जल्दी खाओ, खून पीओ' इत्यादि दुष्ट वचन सुनते अत्यंत क्रूर मन वाला हुआ और दूसरा करुणा प्रेम के अंतःकरण वाले तापस मुनि के 'जीवों को न मारो, न मारो, मुसाफिर आदि की दया करो, दुःखी के प्रति 224 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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