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ममत्व विच्छेदन द्वार-दूसरा शय्या द्वार-दो तोतों की कथा
श्री संवेगरंगशाला अनुकम्पा करो' इत्यादि वचनों से अत्यंत दयालु बना।
इस प्रकार काल व्यतीत होते एक समय वृक्ष के ऊपर शिखर पर भिल्लों का तोता बैठा था। उस समय अति शीघ्र वेग वाले, परंतु विपरीत शिक्षा को प्राप्त किये हुए घोड़े के द्वारा हरण होने से बसन्तपुर नगर का निवासी कनककेतु राजा को किसी तरह वहाँ आते देखा, तब पाप विचारों से युक्त उस तोते ने कहा कि-'अरे! भिल्लों! दौड़ो, जाते हुए राजा को शीघ्र पकड़ो और इसके दिव्य मणि, सुवर्ण तथा रत्नों के अलंकार को शीघ्र लूट लो देखों तुम्हारे देखते-देखते वह भाग रहा है।' इसे सुनकर 'जिस प्रदेश में ऐसे दुष्ट पक्षी रहते हों, उस प्रदेश का दूर से त्याग करना चाहिए।' ऐसा सोचकर राजा शीघ्र वहाँ से वापस निकल गया और किसी पुण्योदय से तापस के उस आश्रम के नजदीक प्रदेश में पहुँचा। वहाँ तापस के तोते ने राजा को देखकर मधुर वाणी से कहा-हे तापस मुनियों! यह ब्रह्मचर्यादि चारों आश्रम वालों का गुरु सदृश राजा घोड़े द्वारा हरण किया हुआ यहाँ आया है, इसलिए उसकी भक्ति-उचित विनय करो।' उसके वचन से तापसों ने सर्व आदरपूर्वक राजा को अपने आश्रम में ले गये, वहाँ भोजन आदि से उसका सत्कार किया। फिर स्वस्थ शरीर वाला और विस्मित मन वाले राजा ने तोते को पूछा कि-समान तिर्यंच जीवन है, फिर भी आचरण परस्पर विरुद्ध क्यों है? जिससे वह भिल्लों का तोता ऐसा निष्ठुर बोलता है और तूं कोमल वाणी से ऐसा एकान्त हितकर बोलता है? तब तोते ने कहा कि-मेरी और उसकी माता एक है और पिता भी एक है, केवल उसे भिल्ल पल्ली में ले गये और मुझे मुनि यहाँ ले आये हैं, इस तरह हमारे में निज-निज संसर्ग जन्य यह दोष-गुण प्रकट हुआ है। वह आपने भी प्रकट रूप से देखा है।
इस प्रकार यदि तिर्यंचों को भी संसर्गवश गुण-दोष की सिद्धि जगत में प्रसिद्ध है, तो तप से दुर्बल दुःख से पालन हो सके ऐसी अनशन की साधना में उद्यमशील बना तपस्वी दुष्ट मनुष्यों के पड़ोस में रहे तो स्वाध्याय में विघ्न आदि का कारण कैसे नहीं हो सकता है? उनका भी पतन हो सकता है। कुशील मनुष्यों के पड़ोस में रहने से श्रेष्ठ समता वाला, इन्द्रियों का श्रेष्ठ दमन करने वाला और पूर्ण निरभिमानी भी कलुषित बनता है, उसमें क्या आश्चर्य है? अन्य मनुष्यों से रहित एकांत वसति में क्लेश, बातें, झगड़ा, विमूढ़ता दुर्जन का मिलन, ममत्व और ध्यान-अध्ययन में विघ्न नहीं होता है। इसलिए जहाँ मन को क्षोभ करने वाले पाँचों इन्द्रियों के विषय न हों, वहाँ तीनों गुप्ति से गुप्त क्षपक मुनि शुभ ध्यान में स्थिर रह सकता है। जो उद्गम, उत्पादना और एषणा से शुद्ध हो, साधु के निमित्त में सफाई अथवा लिपाई आदि किये बिना का हो, स्त्री, पशु, नपुंसक से अथवा सूक्ष्म जीवों से रहित हो, साधु के लिए जल्दी अथवा देरी से तैयार नहीं किया हुआ हो, जिसकी दिवार मजबूत हो, दरवाजे मजबूत हों, गाँव के बाहर हो, गच्छ के बाल-वृद्धादि साधुओं के योग्य हों, ऐसे रहने का स्थान शय्या में, उद्यान में, घर में, पर्वत की गुफा में अथवा शून्य घर में हो वहां रहें। तथा सुखपूर्वक निकल सके और प्रवेश कर सके, ऐसा चटाई के परदे वाली और धर्म कथा के लिए मंडप सहित दो अथवा तीन वसति रखनी चाहिए, उसमें एक के अंतर क्षपक को और दूसरे के अंदर गच्छ में रहे साधुओं को रखना चाहिए कि जिससे आहार की गंध से क्षपक मुनि को भोजन की इच्छा न हो। पानी आदि भी वहाँ रखें जहाँ तपस्वी नहीं देखे, अपरिणत (तुच्छ सामान्य) साधुओं को भी वहाँ नहीं रखे। यहाँ प्रश्न करते हैं-सामान्य साधु को नहीं रखने का क्या कारण है? इसका उत्तर देते हैं-नहीं रखने का मुख्य कारण यह है कि-किसी समय क्षपक मुनि को असमाधि हो जाय तो उसको अशनादि देते देखकर मुग्ध साधुओं को क्षपक मुनि के प्रति अश्रद्धा हो जाती है। और महानुभाव क्षपक को भी अनेक भव की परंपरा से आहार का परिचय होने से वहाँ रखने से किसी समय सहसा गृद्धि प्रकट न हो,
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