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________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्य विच्छेदन द्वार-संस्तारक नामक तीसरा द्वार क्योंकि-आराधना रूपी महासमुद्र के किनारे पर पहुँचा हुआ भी तपस्वी की चारित्र रूपी नाव को किसी कारण से विघ्न आ जाय उसके लिए यह जयणा है। इस तरह धर्म शास्त्रों के मस्तक के मणि समान और संवेगी मन रूपी भ्रमर के लिए विकसित पुष्पों वाली उद्यान समान संवेगरंगशाला नाम की आराधना के नौ अंतर द्वार वाला तीसरा ममत्व विच्छेद द्वार में यह दूसरा शय्या नाम का अंतर द्वार कहा। ___शय्या यथोक्त हो परंतु संथारा के बिना आराधक को प्रसन्नता नहीं रहती है, अतः अब उस द्वार को कहते हैं ।।५२७०।। संस्तारक नामक तीसरा द्वार : पूर्व में विस्तार से कहा है, उस शय्या में भी जहाँ चूहे के खोदे हुए रज समूह का थोड़ा भी नाश (विराधना) न हो, जहाँ जमीन में से उत्पन्न हुआ खार और जलकण आदि का विनाश न हो, जहाँ दीपक का, बिजली का और पूर्व पश्चिमादि दिशा के प्रबल वायु का विनाश न हो, जहाँ अनाज आदि बीज का अथवा हरी वनस्पति का स्पर्श न हो, जहाँ चींटी आदि त्रस जीवों की हिंसा न हो, जहाँ पर असमाधिकारक अशुभ द्रव्यों की गंध आदि न हो, जहाँ जमीन खड्डे और फटी न हो, वहाँ क्षपक मुनि की प्रकृति के हितकारी प्रदेश में समाधि के लिए पृथ्वी की शिला का, काष्ठ का अथवा घास का संथारा बनाकर उत्तर में मुख रखें अथवा पूर्व सन्मुख रखना चाहिए। उसमें भूमि संथारा अचित्त, समान, खोखलों से रहित जमीन पर और शिला संथारे के अंदर पत्थर फटा हुआ न हो अथवा जीव संयुक्त न हो और ऊपर का भाग सम हो, उस शिला पर संथारा करना चाहिए। काष्ठमय संथारा छिद्र रहित हो, स्थिर हो, भार में हल्का हो, एक ही विभाग अखंड काष्ठ का करना और घास का संथारा जोड़ बिना का, लम्बे तृण का, पोलेपन से रहित और कोमल करना चाहिए, एवं उभयकाल पडिलेहणा से शुद्ध किया हुआ और योग्य माप से किये हुए इस संथारे में तीन गुप्ति से गुप्त होकर बैठना। मुनि को भावसमाधि का कारण होने से ऊपर कहे अनुसार यह द्रव्य संथारा भी निःसंगता का प्रतीक कहा है। फिर संलीनता में स्थिर रहा हुआ संवेग गुणयुक्त और धीर संलेखना करने वाला क्षपक मुनि संथारे में बैठकर अनशन के काल को निर्गमन करें। मजबूत और कठिनता से तृण आदि के संथारे में, बैठने में असमर्थ, क्षपक मुनि को यदि किसी भी प्रकार असमाधि हो तो उस पर एक, दो अथवा अधिक कपड़े बिछाए और अपवाद मार्ग में तो तलाई आदि भी उपयोग में ले सकते हैं। भाव संथारा – इस तरह द्रव्य की अपेक्षा से संथारा अनेक प्रकार का कहा है। भाव की अपेक्षा से भी संथारा अनेक प्रकार का जानना, जैसे कि-राग, द्वेष, मोह और कषाय के जाल को दूर से त्यागकर परम प्रशम भाव को प्राप्त करने वाला आत्मा ही संथारा है। सावध योग से रहित संयम धन वाला, तीन गुप्ति से गुप्त और पाँच समिति से समित आत्मा जो भाव साधु है उसका आत्मा ही संथारा है। निर्मम और निरहंकारी, तृण मणि में, तथा पत्थर के टुकड़े और सुवर्ण में अत्यंत समचित्त वाला एवं परमार्थ से तत्त्व के ज्ञाता जो आत्मा है वही संथारा है। जिसको स्वजन अथवा परजन में, शत्रु और मित्र में, तथा स्व-पर विषय में परम समता है वही आत्मा निश्चय संथारा है। दूसरों को प्रिय या अप्रिय करने पर भी जिसका मन हर्षित अथवा दीनता को धारण नहीं करता उसकी आत्मा ही संथारा है। किसी भी द्रव्य में, क्षेत्र में, काल में या भाव में राग को त्याग करने के लिए तत्पर रहना और जो सर्व जीवों के प्रति मैत्री भाव वाली आत्मा हो वही भाव संथारा है। सम्यक्त्व, ज्ञान और 1. अववाएणं ता जा पावारगतूलिभाऽऽई वि ||५२८२।। 226 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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