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________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-संस्तारक नामक तीसरा द्वार-गजसुकुमार की कथा श्री संवेगरंगशाला चारित्र रूप जो मोक्ष साधक गुण उस आत्मा में ही सुरक्षित हैं, इसलिए भाव से आत्मा ही संथारा है। शुद्ध और अशुद्ध संथारा - आश्रव द्वार को नहीं रोकने वाले आत्मा को उपशम भाव में स्थिर नहीं करता है और संथारा में रहे, अनशन स्वीकार करे उसका संथारा अशुद्ध है। गारव से उन्मत्त जो गुरुदेव के पास आलोचना लेने की इच्छा न रखें और संथारे में बैठा हो उसका संथारा अशुद्ध है। योग्यता प्राप्त करने वाला यदि गुरु महाराज के पास आलोचना को करता है और संथारे में रहता है उसका संथारा अति विशुद्ध है। सर्व विकथा से मुक्त, सात भय स्थानों से रहित बुद्धिमान जो संथारे में रहता है उसका संथारा अति विशुद्ध है। नौ वाड़ सुरक्षित ब्रह्मचर्य वाला एवं दस प्रकार के यति धर्म से युक्त जो संथारे में रहता है उसका संथारा अति विशुद्ध है। आठ मद स्थानों से पराभव प्राप्त करने वाला, निध्वंस परिणाम वाला, लोभी और उपशम रहित मन वाले का यह संथारा क्या हित करेगा? जो रागी, द्वेषी, मोह, मूढ़, क्रोधी, मानी, मायावी और लोभी है वह संथारे में रहा हुआ भी संथारे के फल का भागीदार नहीं होता है। जो मन, वचन और काया रूप योग । के प्रचार को नहीं रोकता और सर्व अंगों से, जिसकी आत्मा संवर रहित है, वह वस्तुतः धर्म से रहित, संथारे के फल का हिस्सेदार कैसे बन सकता है? अतः जो गुण बिना का भी संथारे में रहकर मोक्ष की इच्छा करता है तब तो उस मुसाफिर, रंक और सेवक जन का मोक्ष प्रथम होगा! बाह्य-अभ्यंतर गुणों से रहित और बाह्यअभ्यंतर दोष से दूषित रंक आत्मा संथारे में रहता है, फिर भी अल्पमात्र भी फल को प्राप्त नहीं करता।।५३०० ।। बाह्य-अभ्यंतर गुण से युक्त और बाह्य-अभ्यंतर दोषों से दूर रहा हुआ, संथारे में नहीं रहने पर भी इच्छित फल का पात्र बनता है। तीनों गारव से रहित, तीन दण्ड का नाश करने में जिसकी कीर्ति फैली हुई है, जो निःस्पृह मन वाला है उसका संथारा निश्चय सफल है। जो छह काय जीवों की रक्षा के लिए एकाग्र जयणा पूर्ण प्रवृत्ति करता है, आठ मद रहित और विषय सुख की तृषा से रहित है, वह संथारे के फल का हिस्सेदार बनता है। जो तपस्वी समता से युक्त मन वाला हो, संयम, तप, नियम के व्यापार में रक्त मनवाला और स्व-पर कषायों को उपशम करने वाला हो वह संथारे का फल वास्तविक रूप में प्राप्त कर सकता है। अच्छी तरह गुणों को विस्तार करने वाले संथारे को जो सत्पुरुष प्राप्त करता है, उसीने जीवलोक में सारभूत धर्म रत्न को प्राप्त किया है। सर्व क्षमा रूपी बख्तर से सर्व अंगों की रक्षा कर, सम्यग् ज्ञानादि गुण और अमूढ़ता रूप शस्त्र को धारण कर, अतिचार रूपी मलिनता से रहित और पंच महाव्रत रूपी महा हाथी के ऊपर बैठा हुआ क्षपक वीर सुभट प्रस्तुत संथारा रूपी युद्ध की भूमि में विलास करते उपसर्ग और परिषहों रूपी सुभटों से युक्त प्रचण्ड कर्म शत्रु की प्रबल सेना को सर्व प्रकार से जीतकर आराधना रूपी विजय ध्वजा को प्राप्त करता है, क्योंकि-तीन गुप्ति से गुप्त आत्मा श्रेष्ठ संलेखना के करने के लिए सम्यक्त्व रूपी पृथ्वी के संथारे में अथवा विशुद्ध सद्धर्म गुणरूपी तृण के संथारे में अथवा प्रशम रूपी काष्ठ के संथारे में या अति विशुद्ध लेश्या रूपी शिला के संथारे में आत्मा को स्थिर करता है, इससे वह आत्मा ही संथारा है। और विशुद्ध प्रकार से मरने वाले को तो तृणमय संथारा या अचित्त भूमि भी आराधना में कारण नहीं है, परंतु वहाँ आत्मा ही स्वयं अपने संथारे का आधार बनता है। जो त्रिविध-त्रिविध उपयोग वाला है उसे तो अग्नि में भी, पानी में भी अथवा त्रस जीवों के ऊपर या सचित्त बीज और हरी वनस्पति के ऊपर भी संथारा होता है। अग्नि, पानी और त्रस जीव के संथारे में अनुक्रम से धीर गजसुकुमार, अर्णिका पुत्र आचार्य और चिलाती पुत्र आदि के दृष्टांत हैं ।।५३१३।। वह इस प्रकार : अग्नि संथारे पर गजसुकुमार की कथा द्वारिका नगरी में यादव कुल में ध्वजा समान अर्द्ध-भरत की पृथ्वी का स्वामी श्री कृष्ण नामक अंतिम 227 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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