________________
श्रीसंवेगरंगशाला
ममत्व विच्छेदन द्वार-संस्तारक नामक तीसरा द्वार-अर्णिका पुत्र आचार्य की कथा
वासुदेव था। उसका गजसुकुमार नाम का छोटा भाई था। इच्छा नहीं होने पर भी माता और वासुदेव आदि स्वजनों के आग्रह से उसने सोमशर्मा नाम के ब्राह्मण की पुत्री के साथ विवाह किया, परंतु श्री नेमिनाथ भगवान के पास धर्म को सुनकर सारे जगत को क्षीण, विनश्वर जानकर नवयुवक होने पर भी और रूप से कामदेव समान होने पर भी वह चरम शरीरी महासत्त्वशाली गजसुकुमार साधु बना और भय मोहनीय से रहित निर्भय बनकर वे मुनि भगवान के साथ गाँव, नगरादि में विहार करने लगे। इस तरह विहार करते बहुत काल के बाद वे द्वारका में पधारें। वहाँ श्री रैवतगिरि के ऊपर देवों ने भगवंत के समवसरण की रचना की। भगवंत समवसरण में विराजमान हुए और गजसुकुमार मुनि श्मशान में कायोत्सर्ग करके खड़े रहे। फिर किसी कारण से उस प्रदेश में सोमशर्मा आया। 'यह वही है कि जिसने मेरी पुत्री से विवाह करके त्याग किया है' ऐसा विचार करते तीव्र क्रोध चढ़ गया। उसको मार देने की इच्छा से उसने उसके मस्तक ऊपर मिट्टी की पाल बाँधकर, उस पाल के अंदर जलते अंगारे भर दिये, तब उसका मस्तक अग्नि से जलने लगा, परंतु गजसुकुमार शुभ ध्यान में स्थिर रहते अंतकृत केवली बनकर मोक्ष गये। इस तरह उस गजसुकुमार का अग्नि का संथारा जानना। अब जिनको जल का संथारा हुआ था उस अर्णिका पुत्र आचार्य का प्रबंध कहते हैं।
जल संथारे पर अर्णिका पुत्र आचार्य की कथा श्री पुष्पभद्र नगर में प्रचण्ड शत्रु पक्ष को चूरण करने का व्यसनी पुष्पकेतु नामक महान राजा था। उसकी पुष्पवती नाम की रानी थी। उस रानी से युगल रूप पुष्पचूल नामक पुत्र और पुष्पचूला नामक पुत्री ने जन्म लिया था। उन दोनों को परस्पर अति स्नेह वाले देखकर राजा ने उनका वियोग नहीं करने के कारण से परस्पर उनका विवाह किया। पुष्पवती को इसके कारण निर्वेद उत्पन्न हुआ और दीक्षा लेकर देवलोक में उत्पन्न हुई। वहाँ से सुख पूर्वक सोई हुई पुष्पचूला को करुणा से प्रतिबोध करने के लिए स्वप्न में भयंकर दुःखों से अति दुःखी नरक के जीवों को तथा नारकों को बतलाने लगी। फिर भयंकर स्वरूप वाले उन स्वप्नों को देखकर उसी समय जागृत होकर उसने राजा को नरक का वृत्तान्त कहा। उसने भी रानी के विश्वास के लिए सभी पाखण्डियों को बुलाकर पूछा कि-भो! नरक कैसी होती है? और उसमें दुःख कैसा होता है? उसे कहो। अपने-अपने मतानुसार उन्होंने नरक का वृत्तान्त कहा, परंतु रानी ने उसे स्वीकार नहीं किया। फिर राजा ने बहुश्रुत सर्वत्र प्रसिद्ध एवं स्थविर अर्णिका पुत्र आचार्य को बुलाकर पूछा-उन्होंने नरक का यथास्थित वर्णन किया। इससे भक्तिपूर्ण हृदय वाली पुष्पचूला रानी ने कहा कि-हे भगवंत! क्या आपने भी स्वप्न में यह वृत्तान्त देखा है? गुरु महाराज ने कहा कि-हे भद्रे! जगत में ऐसा कुछ भी नहीं है कि जिस वस्तु को श्री जिनेश्वर परमात्मा के आगम रूपी दीपक के बल से नहीं जान सकते। इस नरक का वृत्तान्त तो कितना मात्र है? ।।५३३४।।
फिर किसी समय उसकी माता ने उसको स्वप्न में आश्चर्यकारक वैभव से युक्त देवों के समूहवाला स्वर्गलोक बतलाया। और पूर्व के समान पुनः सभी को आमंत्रण देकर राजा ने पूछा, परंत यथार्थ उत्तर नहीं मिला, इससे आखिर में आचार्य श्री को बुलाकर स्वर्ग का वृत्तान्त पूछा, तब आचार्य श्री ने भी उसका स्वरूप यथार्थ कहा और हर्षित हुई रानी पुष्पचूला ने भक्ति से चरणों में नमस्कार करके कहा कि-गुरुदेव! नरक के दुःखों की प्राप्ति किस प्रकार होती है? और देवों के सुख की प्राप्ति किस प्रकार होती है? गुरु महाराज ने कहाभद्रे! विषयासक्ति आदि पापों से नरक का दुःख और उसके त्याग से स्वर्ग सुख मिलता है। तब सम्यक् प्रतिबोध को प्राप्त कर उसने विषय के व्यसन को छोड़कर दीक्षा लेने के लिए राजा से अनुमति माँगी और उसके विरह से राजा मुरझा गया। फिर 'तुझे कभी भी अन्य क्षेत्र में विहार नहीं करना, इस स्थान पर रहना।' ऐसी प्रतिज्ञापूर्वक,
228
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org