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विकराल एवा कालने क्रूर थप्पडो. एमां आपेली कथाओमां शेताननी शेतानियत जेम संभळाय छे तेम वीरनी वीरता पण वर्णवाय छे अने कायरोनी कायरतानी कमनसीब कहाणी पण छे. संवेगरंगशाळाना श्लोको एटले मोहनी छाती उपर उपराउपरि गोठवायेली तोपो कहो के तीर कामठां कहो, आजनी भाषामां बोंब कहो के जुना जमानानी बंदूको कहो. जे कहेवू होय ते कहो पण ए वात चोक्कस छे के आ ग्रन्थ वांचनार भव्य जीव थोडा कालमां निजना मोहनो नाश अने स्व-स्वरूपनी अनुभूति करे छे. मोहमां पागल बनेला कायरोनी कमनसीब कथा सांभळी कर्मनी क्रूरता भरी कतल करनारा पण कंपी उठे छे. बीजी बाजु वीरपुरुषोए मोहनी सामे बतावेल शौर्यनां सन्मान पण स्थळे-स्थळे देखाय छे. टुंकमां संवेगरंगशाळा आपणनें कहे छे, "ओ मोहनिद्रमां मस्त बनेला मानवी! तुं तारी आत्मानी आंखने उघाड, उठ, बेठो था. मात्र बेठा थये नहि चाले पण ऊभो था अने आ ग्रन्थमां बतावेला बळवान शस्त्रो स्वीकारी मोहनी सामे लडाई लडवा मांड. ओ अज्ञानना अंधकारमा अथडा जरा विचार कर, विचार कर. क्यां तारी आराधनानी उत्तम सामग्री अने क्यां तारी मोहमस्तता? आ मोहस्तीने मारीने मूळ स्वरूपने प्रगट करवू होय तो आ ग्रन्थ, पुनः पुन रटण कर."
आ ग्रन्थ एटले रत्नत्रयीनी पांगरेली वसंतऋतु, मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान अने मिथ्याचारित्रनी पानखरऋतु.
आ कथा कोई कल्पनाना गुंथेला तार नथी पण आत्माने हितकार तथ्योर्नु पथ्य छे. संसार शेतरंजनी पाशवलीला आ ग्रन्थ आबेहूब दर्शावे छे.
बारमी सदीनी प्रथम पच्चीसीमां लखायेल आ ग्रन्थ ए मात्र कोई पुस्तक के पानाओना ढग नथी. सिद्धांत के नियमोनी यादी नथी. मात्र अहेवालोनो हिमालय नथी पण संसार सागर पार करवा कर्ममत्स्योनी कतल करनार होडी छे. मात्र होडी ज नहि पण मुक्ति महालयमां सादि अनंतकाल पर्यंत महालवा माटेनुं महान् यानपात्र छे. एनो एक एक श्लोक मोहनी सामे मशीनगन छे. ए- एक पद कर्म सामे रीवोल्वर छे. एनो एक एक अक्षर ए मिथ्यात्वमातंगने महात करवा मृगादिराज छे. एनो एक एक अधिकार अविरतिने उखेडवा एने कषायवृक्षोने कापवा
कुहाडो छे.
वधुं शुं कहीए! आ ग्रन्थ एटले साक्षात् मिथ्यात्वनुं मोत, अविरतिनी विरति (विराम) अने कषायोनी कुटिलानी क्रूर कहाणीना कथन साथे तेनी करपीण कतल तेमज मन, वचन अने कायाना योगनो अयोग छे.
- आचार्य देव श्री रामचंद्र सूरीश्वरजी के शिष्यरत्न मुनिराज श्री मुक्तिविजयजी.
चारित्र लेने के बाद भी संवेगरंग का प्रकटीकरण न हुआ तो समझ लेना कि वह आत्मा अभव्य या दुर्भव्य है।
जब तक संसार का तीव्र भय और मोक्षाभिलाषा तीव्र न बनें तब तक समझना कि वैराग्य-संवेगरंग का प्रादुर्भाव नहीं हुआ।
-जयानंद
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