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श्री संवेगरंगशाला
ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार-लज्जा से दोष छुपानेवाले ब्राह्मण पुत्र की कथा दोष शुद्धि जानना । जैसे दुष्कर तप को करने वाला हो, परंतु जिनशासन का विरोधी हो, उसकी किसी प्रकार सिद्धि नहीं होती है। इसी तरह यह शुद्धि भी दोष युक्त अशुद्ध जानना।
इस तरह इन दस दोषों का त्यागकर भय, लज्जा, मान और माया दूरकर आराधक तपस्वी शुद्ध आलोचना करें। जो नटकार के समान चंचलता, गृहस्थ की भाषा, गूंगत्व और जोर की आवाज को छोड़कर गुरुदेव के संमुख रहकर विधिपूर्वक सम्यग् आलोचना करता है, उसे धन्य है । इस तरह आलोचना लेने वाला कैसा होता है वह दुष्ट आलोचक का स्वरूप सहित संक्षेप में कहा है। अब आलोचना नहीं लेने से जो दोष लगते हैं, उसे कहते हैं।
४. आलोचना नहीं लेने से होने वाले दोष :- • लज्जा, गारव और बहुश्रुत ज्ञान के अभिमान से भी जो अपना दुश्चरित्र (दोष) को गुरुदेव के संमुख नहीं कहते हैं, वे निश्चय आराधक नहीं होते हैं। यदि थोड़ी-सी भी भूल हो जाये तो भी गुरु महाराज को कहने में लज्जा नहीं करनी चाहिए। लज्जा तो हमेशा केवल अकार्य करने में करनी चाहिए। इस विषय में एक युवराज का उदाहरण है :- एक युवराज मैथुन से रोगी बना था, उसने लज्जा से वैद्य को नहीं कहा, इससे रोग की वृद्धि हुई। भोग का अभाव वाला बना और आखिर वह मर गया। इसका उपनय इस प्रकार है :- युवराज समान साधु है, उसके मैथुन के रोगों के समान अपराध नहीं कहने के सदृश आलोचना रूपी औषध और वैद्य समान आचार्य जानना । लज्जा से रोग की वृद्धि समान यहाँ असंयम की वृद्धि है, भोग के अभाव तुल्य देव मनुष्य के भोगों का अभाव और बार-बार मृत्यु रूप यहाँ संसार समझना । अथवा लज्जा के आधीन अपराध को सम्यग् रूप से नहीं कहने से दोष होता है और लज्जा को छोड़कर अपराध कहने से गुण प्रकट होता है। इसे समझाने के लिए ब्राह्मण पुत्र का दृष्टांत कहते हैं ।। ४९५३ ।।
लज्जा से दोष छुपाने वाले ब्राह्मण पुत्र की कथा
उद्यान, भवन, गोल बावड़ी, देवमंदिर, चतुष्कोण बावड़ी और सरोवर से रमणीय, एवं समग्र जगत में प्रसिद्ध पाटलीपुत्र नामक नगर में वेद और पुराण का ज्ञाता, ब्राह्मणों में मुख्य तथा सर्वत्र प्रसिद्धि प्राप्त करने वाला, धर्म में उद्यमशील बुद्धि वाला कपिल नाम का ब्राह्मण था । वह अपनी बुद्धि बल से भव स्वरूप को मदोन्मत्त स्त्री के कटाक्ष समान नाशवान्, यौवन के लावण्य को वायु से उड़े हुए आक की रुई समान चपल, तथा विषय सुख को किंपाक के फल समान प्रारंभ में मधुर और परिणाम में दुःखद मानकर तथा सारे स्वजन के संबंधों को भी अति मजबूत बंधन समान जानकर, घर का राग छोड़कर, एक जंगल की भयानक झाड़ियों वाले प्रदेश में तापस दीक्षा स्वीकारकर रहा हुआ था। और उस शास्त्र कथनानुसार विधिपूर्वक विविध तपस्या तथा फल, मूलकंद आदि से तापस के योग्य जीवन निर्वाह करने लगा। एक दिन वह स्नान के लिए नदी किनारे गया और वहाँ उसने मछली के मांस को खाते पापी मछुए को देखा, कि जिससे उसके पूर्व की पापी प्रकृति से और जीभ इन्द्रिय की प्रबलता से मांस भक्षण की तीव्र इच्छा प्रकट हुई। फिर उसने उनके पास से उस मांस की याचना कर गले तक खाया और उसके खाने से अजीर्ण के दोष से उसे भयंकर बुखार चढ़ा। इससे चिकित्सा के लिए नगर में से कुशल वैद्य को बुलाया और वैद्य ने उससे पूछा कि - हे भद्र! पहले तूंने क्या खाया है?
लज्जा से उसने सत्य नहीं कहा, परंतु उसने कहा कि- मैंने वह खाया है जो तापस कंद, मूल आदि खाते हैं। ऐसा कहने पर वैद्य ने 'बुखार वात दोष से उत्पन्न हुआ है' ऐसा मानकर उसकी शांति करने वाली क्रिया की, परंतु उससे कोई लाभ नहीं हुआ । वैद्य ने फिर पूछा, तब भी उसने लज्जा से वैसे ही कहा और वैद्य ने भी वही क्रिया - दवा को विशेष रूप से किया। फिर उल्टे, उपचार से वेदना बढ़ गयी । अत्यंत पीड़ा और मृत्यु के भय
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