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________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार श्री संवेगरंगशाला माने कि-यदि सूक्ष्म-सूक्ष्म दोषों की आलोचना करता है, वह बड़े दोषों की क्यों नहीं आलोचना करें? अथवा यदि बड़े-बड़े दोषों की आलोचना करता है, वह सूक्ष्म दोषों की आलोचना क्यों नहीं करेगा? इस तरह अन्य समझेंगे, इससे प्रभाव पड़ेगा। ऐसा मानकर जहाँ-जहाँ उसके व्रत का भंग हुआ हो, वहाँ-वहाँ बड़े दोषों की आलोचना करें और सूक्ष्म दोषों को गुप्त रखे। यह चौथा आलोचना का दोष कहा है। जैसे काँसे की जाली अंदर से मैली और बारह से उज्ज्वल रहती है वैसे इस आत्मा में सशल्यत्व के दोष से यह आलोचना बाहर से लोगों को आकर्षण करने वाली, निर्दोष सिद्ध करने वाली है, परंतु अंदर काली श्याम परिणाम वाली है। पाँचवां दोष :- भय से. अभिमान से अथवा माया से जो केवल सक्ष्म या सामान्य दोषों की आलोचना करें और बड़े महा दोषों को छुपाये वह आलोचना का पाँचवां दोष है। जैसे पीतल के कंडे के ऊपर सोने का पानी चढ़ाये हुए के समान, अथवा कृत्रिम सोने का कंडा जिसके अंदर लाख भरा हुआ कड़ा हो, उसके समान यह आलोचना भी जानना। छट्टा दोष :- प्रथम, दूसरे, तीसरे, चौथे और पाँचवें व्रत में यदि किसी ने मूलगुण और उत्तरगुण की विराधना की हो तो उसे कितने तप का प्रायश्चित्त दिया जाता है? इस तरह गुप्त रूप से पूछकर, आलोचना लिये बिना ही अपने आप उसी तरह ही प्रायश्चित्त करें, वह आलोचना का छट्ठा दोष जानना। अथवा आलोचना करते समय स्वयं ही सुने और अन्य नहीं सुने, इस तरह गुप्त आलोचना करें, इस तरह करने से भी छट्ठा दोष लगता है। जो अपने दोषों को कहे बिना ही शुद्धि की इच्छा करता है, वह मृगतृष्णा के जल समान अथवा चंद्र के आसपास होने वाला जल का कुंडाला (तुषारावृत्) में से भोजन की इच्छा रखता है। जैसे उससे इच्छा पूर्ण नहीं होती वैसे अपने दोष कहे बिना शुद्धि नहीं होती है। सातवाँ दोष :- पाक्षिक, चौमासी और संवत्सरी इन आत्म शुद्धि करने के दिनों में दूसरे नहीं सुनेंगे ऐसा सोचकर कोलाहल में दोषों को कहें, वह आलोचना का सातवाँ दोष जानना। उसकी यह आलोचना रेहट की घड़ी के समान खाली होकर फिर भरने वाली सदृश है, शुद्धि करने पर भी नहीं करने जैसी हैं अथवा समूह में की हुई छींक निष्फल जाती है वैसे उसकी शुद्धि भी निष्फल जाती है, अथवा फूटे घड़े के समान जिसमें पानी नहीं रहे वैसे इस आलोचना का फल उसमें टिक नहीं सकता है ।४९८५।। आठवाँ दोष :- एक आचार्य के पास आलोचना लेकर जो फिर उसी ही दोषों की दूसरे आचार्य श्री के पास आलोचना करे उसे बहुजन नाम का आठवाँ दोष कहा है। गुरु महाराज के समक्ष आलोचना करके उनके पास से प्रायश्चित्त को स्वीकार करके भी उसकी श्रद्धा नहीं करता और अन्य-अन्य को पूछे वह आठवाँ दोष है। अंदर शल्य (वेदना) रह जाने पर फोड़ा खुशक होने के समान फिर रोगी को भयंकर वेदनाओं से दुःख होता है वैसे यह प्रायश्चित्त भी उसके समान दुःखदायी होता है। नौवाँ दोष :- जो गुरु महाराज आलोचना के योग्य श्रुत से अथवा पर्याय से अव्यक्त-अधूरे हों उसे अपने दोष कहने वाले को स्पष्ट आलोचना का नौवाँ दोष लगता है। जैसे कृत्रिम सोना अथवा दुर्जन की मैत्री करना वह अंत में निश्चय ही अहितकर होती है वैसे ही यह प्रायश्चित्त लाभदायक नहीं होता है। दसवाँ दोष :- आलोचना के समान ही उसी अपराधों को जिस आचार्य ने सेवन किया हो उसे तत्सेवी कहते हैं। इससे आलोचना करने वाला ऐसा माने कि 'यह मेरे समान दोष वाला है, इससे मुझे बहुत बड़ा ? इस तरह मोह से संक्लिष्ट भाव वाला ऐसे गुरु के पास आलोचना ले, वह आलोचना का दसवाँ दोष है। जैसे कोई मूढ़ात्मा, रुधिर से बिगड़े हुए वस्त्र की शुद्धि उसी रुधिर से ही करें, उसके समान यह - 211 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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