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________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार करता है और प्रसन्नता से प्रायश्चित्त स्वीकार करता है। दर्शन गुण वाला 'मैं दोष से सम्यक् शुद्ध हुआ' ऐसी श्रद्धा करता है, चारित्र वाला बार-बार उन दोषों का सेवन नहीं करता है तथा आलोचना किये बिना मेरा चारित्र शुद्ध नहीं होता है, ऐसा समझकर सम्यग् आलोचना करें। क्षमाशील आचार्य कठोर वचन कहें फिर भी उसे आवेश नहीं आता उसे गुरुदेव जो यथार्थ प्रायश्चित्त दे उसे पूर्ण करने में समर्थ बनता है, पाप को छुपाता नहीं है और पश्चात्ताप नहीं करने वाला, आलोचना करके फिर खिन्न नहीं होता है। इस कारण से संवेगी और अपने को कृतकृत्य मानने वाले साधु को आलोचना देना । प्रायश्चित्त लेने के बाद ऐसा चिंतन करे कि - परलोक में इस दोष के उपाय अत्यंत कठोर भोगने पड़ते हैं, इससे मैं धन्य हूँ कि जो मेरे उन दोषों को गुरुदेव इस जन्म में ही विशुद्ध करते हैं। अतः प्रायश्चित्त से निर्भय बना और पुनः दोषों को नहीं करने में उद्यमी बनूँ, परंतु विपरीत नहीं बनूँ । क्योंकि ऐसे साधु को आलोचना लेने के लिए अयोग्य कहा है। उसके भेद कहते हैं : तीसरे आलोचक के दस दोष : - (१) गुरु को भक्ति आदि से वश करके आलोचना करना, (२) अपनी कमजोरी बतलाकर आलोचना लेना, (३) जो दोष अन्य ने देखा हो उसे ही कहे, (४) केवल बड़े दोषों को कहे, (५) मात्र सूक्ष्म दोषों की ही आलोचना करे, (६) गुप्त रूप से कहे (७) बड़ी आवाज में आलोचना करें, (८) अनेक गुरुदेवों के पास आलोचना करें, (९) अव्यक्त गुरु के समक्ष आलोचना ले, (१०) अपने समान दोष सेवन करने वाले गुरु के पास में आलोचना ले। ये आलोचक के दस दोष हैं। इन्हें अनुक्रम से कहते हैं 'मुझे प्रायश्चित्त अल्प दें' ऐसी भावना से प्रथम सेवा, वैयावच्च आदि से गुरु को वश या प्रसन्नकर फिर आलोचना ले, जैसे कि 'थोड़ी आलोचना देने में मेरी संपूर्ण आलोचना हो जायगी' ऐसा मानकर आचार्यश्री मुझे अनुगृह करेंगे, ऐसी भावना से कोई आहार, पानी, उपकरण से या वंदन से गुरु महाराज को आवर्जित (आधीन) कर आलोचना ले, वह आलोचना का प्रथम दोष है। जैसे कोई जीने की इच्छा करने वाला पुरुष अहित को भी हित माने, जान-बूझकर जहर पिये वैसी ही यह आलोचना जानना । प्रथम दोष दूसरा दोष :- क्या यह गुरु कठोर प्रायश्चित्त देने वाले हैं अथवा अल्प देने वाले हैं? इस तरह अनुमान से जानकारी करें अथवा मुझे निर्बल समझकर अल्प प्रायश्चित्त दें, इस भावना से वह गुरु महाराज को कहे कि - 'उन साधु भगवंत को धन्य है कि जो गुरु ने दिये हुए बहुत तप को अच्छी तरह उत्साह पूर्वक करते हैं, मैं निश्चय ही निर्बल हूँ, इसलिए तप करने में समर्थ नहीं हूँ। आप मेरी शक्ति को, गुन्हा (दोष) को, दुर्बलता को और अनारोग्य को जानते हैं, परंतु आपके प्रभाव से इस प्रायश्चित्त को मैं बहुत मुश्किल से पूर्ण कर सकूँगा । इस तरह प्रथम गुरु महाराज के सामने कहकर उसके बाद शल्य सहित आलोचना करें। यह आलोचना का दूसरा दोष है। जैसे सुख का अर्थी परिणाम से अहितकर अपथ्य आहार को गुणकारी मानकर खाये वैसे ही शल्यपूर्वक की यह आलोचना भी उसी प्रकार की है। -: 210 Jain Education International तीसरा दोष :- तप के भय से अथवा 'यह साधु इतना अपराध वाला है' इस तरह दूसरे जानते हैं ऐसा मानकर जो-जो दोष दूसरों ने देखे हो उन-उन दोषों की ही आलोचना ले, दूसरे जन नहीं जानते हों उसकी आलोचना न ले। इस प्रकार मूढ़ मति वाला जो गुप्त दोषों को सर्वथा छुपाकर आलोचना करें। यह आलोचना का तीसरा दोष जानना। जैसे खोदते हुए कुएँ में ही कोई उसे धूल से भर देता है वैसे यह शल्य वाली विशुद्धि अशुभ कर्म बंध कराने वाली जानना । चौथा दोष :- जो प्रकट रूप में बड़े-बड़े अपराधों की आलोचना करें, सूक्ष्म की आलोचना न करें अथवा केवल सूक्ष्म दोषों की आलोचना करें, परंतु बड़े दोषों की आलोचना न करें, वह उसमें इस तरह श्रेष्ठ -: For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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