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________________ ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार श्री संवेगरंगशाला है वैसे लोकोत्तर मोक्ष मार्ग में भी कुशल आचार्यश्री को भाव रोग बतलाना चाहिए। यहाँ पर जो भाव रोग को बतलाए उसी को ही कुशल जानना तथा दोष के प्रायश्चित्त आदि के जानकार, अत्यंत अप्रमादी और सबके प्रति समदृष्टि वाला हो, इसके दो भेद हैं प्रथम आगम व्यवहारी और दूसरा श्रुत व्यवहारी। उसमें आगम के छह प्रकार कहे हैं, वह-(१) केवली, (२) मनःपर्यवज्ञानी, (३) अवधिज्ञानी, (४) चौदहपूर्वी, (५) दसपूर्वी और (६) नौ पूर्वी जानना। और श्रुत से जिनकल्प, महानिशिथ आदि को धारण करने वाले इसके अतिरिक्त आज्ञा व्यवहारी और धारणा व्यवहारी को भी श्री जिनेश्वरों ने कारण से कुशल समान कहा है। जैसे विभंग रचित चिकित्सा शास्त्र के जानकार रोग के कारण को तथा उसे शांत करने वाली औषध के जानकार विविध रोग वालों को भी विविध औषध को देता है और उसका उपयोग करने से रोगियों का तत्काल रोग शांत होता है और सदा शुद्ध सत्य शांति को प्राप्त करता है। यह उपमा यहाँ पर आलोचना के विषय में भी इसी तरह जानना कि वैद्य के सदृश श्री जिनेश्वर भगवान, रोगी समान साधु और रोग अर्थात् अपराध, औषध अर्थात् प्रायश्चित्त और आरोग्य अर्थात् शुद्ध चारित्र है। जैसे वैभंगि कृत वैद्यकशास्त्र द्वारा रोग को जानने वाले वैद्य चिकित्सा करते हैं वैसे पूर्वधर भी प्रायश्चित्त देते हैं। श्रुत व्यवहार में पाँच आचार के पालक, क्षमादि गुणगण युक्त और जिनकल्प-महानिशीथ का जो धारक हो वही श्री जिन कथित प्रायश्चित्त द्वारा भव्य जीवात्मा को शुद्ध (दोषमुक्त) करते हैं। जंघा बल क्षीण होने से अन्यअन्य देश में रहे हुए दोनों देश के आचार्यों को भी अगीतार्थ मुनि द्वारा गुप्त रूप में भेजकर उन्हें पूछवाकर आलोचना लेना और शुद्ध प्रायश्चित्त देना यह विधि आज्ञा व्यवहार की है। गुरु महाराज ने अन्य को बार-बार प्रायश्चित्त दिया हो. उन सर्व रहस्य को अवधारण (याद रखने वाला) करने वाला हो, उसे गुरुदेव ने अनुमति दी हो, वह साधु उसी तरह व्यवहार प्रायश्चित्त प्रदान करें उसे धारणा व्यवहार वाला जानना। नियुक्ति पूर्वक सूत्रार्थ में प्रौढ़ता को धारण करने वाला जो हो, उस-उस काल की अपेक्षा से गीतार्थ हो, और जिनकल्प आदि धारण करने वाला हो, उसे भी इस विषय में योग्य जानना, इसे पाँचवां जीत व्यवहारी जानना। इसके बिना शेष योग्य नहीं है। जैसे अज्ञानी वैद्य के पास गलत चिकित्सा कराने वाले रोगी मनुष्य की रोग वृद्धि होती है, मृत्यु का कारण ब ता है. लोक में निंदा होती है. और राजा की ओर से शिक्षा-दण्ड मिलता है. वैसे ही लोकोत्तर प्रायश्चित्त अधिकार में भी सर्व इस तरह घटित होता है, ऐसा जानना। जैसे कि मिथ्या आलोचना का प्रायश्चित्त प्रदान होता है, इससे उल्टे दोषों की वृद्धि होती है। इससे फिर चारित्र का अभाव हो जाता है और इससे यहाँ आराधना खत्म (मृत्यु) हो जाती है। श्री जिनवचन के विराधक को अन्य जन्मों में भी निंदा, निंदित स्थानों में उत्पत्ति और दीर्घ संसार में रहने का दंड जानना। इस तरह उत्सर्ग से और अपवाद से आलोचना के योग्य कौन है, वह कहा है। अब वह आलोचना किसको लेनी चाहिए उसे कहता हूँ ।।४९००।। १. आलोचना लेने वाला कैसा होता है? :- जाति. कल. विनय और ज्ञान से युक्त हो तथा दर्शन और चारित्र को प्राप्त किया हो। क्षमावान, दान्त, माया रहित और पश्चात्ताप नहीं करने वाले आत्मा को आलोचना करने में योग्य जानना । उसमें उत्तम जाति और कुल वाले प्रायःकर कभी भी अकार्य नहीं करते हैं और किसी समय पर करते हैं तो फिर जाति-कुल के गुण से उसकी सम्यग् रूप से आलोचना करते हैं। शुद्ध स्वभाव वाले विनीत होने से आसन देना, वंदना करना आदि गुण को विनयपूर्वक शुद्ध प्रकृति के कारण पाप की स्वयं यथार्थ रूप में आलोचना करता है। यदि ज्ञानयुक्त हो वह अपराध के घोर विपाकों को जानकर प्रसन्नता से आलोचना 1. कहाँ मैंने आलोचना ली अब इतनी तपश्चर्या कैसे करूंगा? मेरी सारी भूले मैंने इनको बता दी अब वे मेरे विषय में कैसा विचार करेंगे? उनकी दृष्टि में मैं पापी बन गया। इत्यादि विचारणा करनी अर्थात् आलोचना का पश्चात्ताप कहा गया है। 209 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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