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________________ श्री संवेगरंगशाला ममत्व विच्छेदन द्वार-आलोचना विधान द्वार तृतीय ममत्व विच्छेदन द्वार तिसरे द्वार का मंगलाचरण : दव्वे खेत्ते काले, भावम्मि य सव्वहा धुयममत्तो । भयवं भवंऽतयारी निरंजणो जयइ वीरजिणो ।।४८६७।। सर्व द्रव्यों में, क्षेत्र में, काल में और भाव में सर्वथा ममत्व के त्यागी, संसार का अंत करने वाले और राग रहित निरंजन भगवंत श्री महावीर परमात्मा विजयी हैं। जिस कारण से आत्मा का परिकर्म करने पर भी और परगण में संक्रमण करने पर भी ममत्व के विच्छेद नहीं करने वाले की आराधना नहीं होती है, इस कारण से गण संक्रमण को कहकर अब ममत्व विच्छेद के अधिकार को कहता हैं। इसमें अनक्रम से नौ अंतर द्वार हैं। वह इस प्रकार से-(१) आलोचना करना, (२) शय्या, (३) संथारा, (४) निर्यापकता, (५) दर्शन (६) हानि, (७) पच्चक्खाण, (८) क्षमापना, और (९) क्षामणा। इन्हें अनुक्रम से कहते हैं। आलोचना विधान द्वार : जिस कारण से गुरुदेव ने स्वीकार किया हुआ भी तपस्वी आलोचना के बिना शुद्धि को प्राप्त नहीं कर सकता है, इसलिए अब आलोचना विधान द्वार को कहता हूँ। गुरु महाराज विधिपूर्वक मधुर भाषा से सर्व गण समक्ष तपस्वी से कहे कि-हे महायश! तूंने शरीर की सम्यक् संलेखना की है, तूंने श्रमण जीवन स्वीकार किया है, उन सर्व कर्तव्यों में तूं रक्त है, शीलगुण की खान, गुरु वर्ग की चरण सेवा में सम्यक् तत्पर है, और निष्पुण्यक को दुर्लभ उत्तम श्रमण पदवी को तूंने सम्यग् रूप से प्राप्त की है, इसलिए अब अहंकार और ममकार का विशेषतया त्यागी बनकर तूं अति दुर्जय भी इन्द्रिय, कषाय, गारव और परीषह रूपी मोह सैन्य का अच्छी तरह पराजयकर दुर्ध्यान रूपी संताप के उपशम भाव वाले हे सुविहित मुनिवर्य! आत्मा का हित चाहनेवाला तूं अणुमात्र भी दुष्कृत्य की विधिपूर्वक आलोचना कर। इस आलोचना करने के दस द्वार हैं। वह इस प्रकार हैं(१) आलोचना कितने समय में लेनी? (२) किसको देनी? (३) किसको नहीं देनी? (४) नहीं लेने से कौन-से दोष लगते हैं? (५) लेने से कौन-सा गुण होता है? (६) आलोचना किस तरह लेनी? (७) गुरु को क्या कहना? (८) गुरु ने आलोचना किस तरह देनी? (९) प्रायश्चित्त, और (१०) फल, वह अनुक्रम से कहते हैं ।।४८७८ ।। १. आलोचना कब लेनी? :- जिसके पैर में काँटा लगा हो, वह जैसे मार्ग में अप्रमत्त चलता है वैसे अप्रमत्त मनवाले मुनिराज प्रतिदिन सर्व कार्यों में यतना करते हैं, फिर भी पाप का त्यागी होने पर भी कर्मोदय के दोष से किसी कार्य में किंचित् भी अतिचार लगे हों और उसकी शुद्धि की इच्छा करते मुनि, पक्खी, चौमासी आदि में अवश्य आलोचना ले तथा पूर्व में स्वीकार किये हुए अभिग्रह को बतलाकर फिर नया अभिग्रह स्वीकार करें। इस तरह श्री जिनवचन के रहस्य को जानते हुए, संवेग में तत्पर अथवा प्रमादी साधु ने भी अंतिम अनशन में तो अवश्य आलोचना लेनी चाहिए। इस तरह जितने काल की आलोचना लेनी हो उसे कहा है। अब किस प्रकार के आचार्य के पास आलोचना लेनी उसे कहते हैं। २. आलोचना किस के पास लेनी? :- जैसे लोगों में कुशल वैद्य के आगे रोग को प्रकट किया जाता 208 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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