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________________ परगण संक्रमण द्वार-पडिलेहणा द्वार-पृच्छा द्वार श्री संवेगरंगशाला नौवाँ पृच्छा द्वार : इसके पश्चात् स्थानिक आचार्य अपने गच्छ के सर्व मुनियों को बुलाकर कहे कि-यह महासात्त्विक तपस्वी तुम्हारी निश्रा में विशुद्ध आराधना की क्रिया को करने की इच्छा रखता है। यदि इस क्षेत्र में तपस्वी को समाधिजनक पानी आदि वस्तुएँ सुलभ हों और तुम इसकी अच्छी तरह सेवा वैयावच्च कर सकते हो तो कहो, कि जिससे इस महानुभाव को स्वीकार करें। उसके बाद यदि वे सहर्ष ऐसा कहें कि-आहारादि वस्तुएँ यहाँ सुलभ हैं और हम भी इस विषय में तैयार हैं, अतः इस साधु पर अनुग्रह करो। उस समय तपस्वी को स्वीकार करना चाहिए। इस तरह उसकी इष्ट सिद्धि विघ्न रहित होती है और अल्प भी परस्पर असमाधि नहीं होती है। इस प्रकार की पच्छा निर्यामक आचार्य को. अन्य गच्छ में से आये हए तपस्वी साध को और साधओं को स | सभी को गुणकारी होती है। और इस प्रकार नहीं पूछने से परस्पर अप्रीति एवं आहार पानी के अभाव होने पर तपस्वी को भी असमाधि इत्यादि बहुत दोष उत्पन्न होते हैं। इस तरह मोक्ष मार्ग के रथ समान और मृत्यु के साथ युद्ध में विजय पताका की प्राप्ति करवाने में सफल हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार वाला दूसरा गण संक्रमण द्वार में नौवाँ पृच्छा नाम का अंतर द्वार कहा है। अब विधिपूर्वक पृच्छा करने पर भी उस क्षपक के आश्रित को उसके बाद सम्यक् करने का कर्तव्य संबंधी प्रतिपृच्छा या प्रतीच्छा द्वार को कहते हैं। दसवाँ प्रतीच्छा द्वार : पूर्व में जो विस्तार से कहा है उसे विधिपूर्वक आये हुए तपस्वी को उत्साह से आचार्य और साधु सर्व आदरपूर्वक स्वीकार करें। केवल यदि उस गच्छ में किसी प्रकार भी एक ही समय में दो तपस्वी आयें, उसमें जिसने प्रथम से ही संलेखना की हो ऐसी काया हो वह श्री जिनवचन के अनुसार संथारे में रहे हुए शरीर को छोड़े और दूसरा उग्र प्रकार के तप से शरीर की संलेखना करें। परंतु विधिपूर्वक तीसरा भी तपस्वी आया हो तो उसको निषेध करें, अन्यथा वैयावच्च कारक के अभाव में समाधि का नाश होता है। अथवा किसी तरह उसके योग्य भी श्रेष्ठ वैयावच्च करने वाले दूसरे अधिक साधु हों तो उनकी अनुमति से उसे भी स्वीकार करना चाहिए। और किसी कारण से यदि वह आहार का त्यागी प्रस्तुत अनशन कार्य को पूर्ण करने में समर्थ न हो, थक जाये और लोगों ने उसे जाना—देखा हो, तो उसके स्थान पर दूसरे संलेखना करने वाले साधु को रखना चाहिए तथा उन दोनों के बीच में सम्यग् रूप परदा रखना। उसके बाद जिन्होंने उसे पूर्व में सुना हो या देखा हो वे वंदनार्थ आयें तो अल्पमात्र दर्शन कराना चाहिए अन्यथा अश्रद्धा और शासन की निंदा आदि दोष उत्पन्न होने का कारण बनता है। इस कारण से परदे के बाहर रहे उस साधु को वंदन करवाना। इस विधि से गण संक्रमण करके ममत्व से मुक्त बनें धीर आत्मा श्री जिनाज्ञा की आराधना करके दुःख का क्षय करता है। इस तरह श्री जिनचंद्रसूरिजी रचित एवं मृत्यु के साथ युद्ध में विजय पताका की प्राप्ति करने में सफल कारणभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार वाला दूसरा परगण संक्रमण द्वार में प्रतीच्छा नाम का दसवाँ अंतर द्वार कहा और यह कहने से चार मूल द्वार में परगण संक्रमण नाम का यह दूसरा द्वार भी ४८६६ श्लोक से पूर्ण हुआ। ॥ इति श्री संवेगरंगशाला द्वितीय द्वार ।। 207 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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