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श्री संवेगरंगशाला
परगण संक्रमण द्वार-सुस्चित गवेषणा द्वारपडिलेहणा द्वार-हरिदत्त जुलि का प्रबंध शिक्षा नहीं देते। साधु के कहने पर भी उन पुरुषों ने कहा कि-हे साधु! अधिक मत बोलो, यदि तुम्हें यहाँ रहने की इच्छा है तो आप स्वयमेव जाकर राजा को समझाओ। फिर वह मुनि उन पुरुषों के साथ राजा के पास गया
और आशीर्वादपूर्वक इस तरह कहने लगा कि-हे राजन्! तुम्हें इस तरह धर्म में विघ्न करना योग्य नहीं है। धर्म के पालन करने वाले राजा की ही वृद्धि होती है और उस शास्त्रोक्त धर्म क्रिया के पालन में दत्त चित्तवाले साधुओं के विरोधी लोगों को समदृष्टि के द्वारा रोकने की होती है। आप ऐसा मत समझना कि-क्रोधित हुए ये साधु क्या कर सकते हैं? अति घिसने पर चंदन भी अग्नि प्रकट करता है ।।४८२२।। इत्यादि कहने पर भी जब राजा ने दुराग्रह को नहीं छोड़ा तब उस मुनिवर ने 'यह दुष्ट है' ऐसा मानकर विद्या के बल से उसके महल के महान और स्थिर स्तंभ भी चलित हो गये। मणि जड़ित भूमि का तल भाग था वह भी कम्पायमान हो गया, ऊपर के शिखर गिर पड़े, पट्टशाला टूट गई, ऊँचे तोरण होने पर भी नम गये, दिवारों में खलबली मच गयी, चारों तरफ से किल्ला काँपने लगा और कई टूटी हुई सेंध दिखने लगीं। ऐसी स्थिति देखकर राजा भयभीत बना, अति मानपूर्वक परों में पड़कर साधुओं को विनती करने लगा कि-हे भगवंत! आप ही उपशम भाव के स्वामी हो, दया की खान स्वरूप और इन्द्रिय कषायों को जीतने वाले हो, आप ही संसार रूपी कुएँ में गिरे हुए जीवों को हाथ का सहारा देकर बचाने वाले हो। इसलिए मलिन बुद्धि वाले मेरा यह एक अपराध क्षमा करो। पुनः मैं ऐसा कार्य नहीं करूँगा, अपने दुष्ट शिष्य के समान मेरे प्रति अब प्रसन्न हो। हे मुनीन्द्र! मन से भी कदापि ऐसा करने के लिए मैं नहीं चाहता हूँ, परंतु पुत्र पीड़ा की व्याकुलता से मैंने दुष्ट की प्रेरणा से यह कार्य किया है। अब इस प्रसंग के कारण से आपकी शक्तिरूपी मथनी से मथन करने से मेरा मनरूप समुद्र विवेक रत्न का रत्नाकर बना है अर्थात् विवेकी बना है, इस कारण से उस पुत्र से क्या प्रयोजन है? और उस राज्य तथा देश से क्या लाभ कि जिससे मैं आपके चरण-कमल की प्रतिकूलता का कारण बना?
फिर नमस्कार करने वाले के प्रति वात्सल्य वाले उस मुनि ने 'यह भयभीत बना है' ऐसा जानकर राजा को प्रशान्त मुख से मधुर वचनों द्वारा आश्वासन देकर निर्भय बना दिया। उस समय पर मुनि के प्रभाव से प्रसन्न हुआ जिनदास नामक श्रावक ने राजा से कहा कि-हे देव! निश्चय इस मुनि का नाम लेने से भी ग्रह, भूत, शाकिनी के दोष शांत हो जाते हैं और चरण प्रक्षाल के जल से विषम रोग भी प्रशान्त होते हैं। ऐसा सुनकर राजा ने मुनि के चरण-कमल का प्रक्षालन किया और उसके जल से पुत्र को सिंचन किया, इससे वह शीघ्र ही स्वस्थ शरीर वाला हो गया। उसकी महिमा को स्वयं देखने से, धर्म की श्रेष्ठता पर निश्चय रूप में राजा को श्रद्धा हो गयी और साधु के वचन से जैन धर्म को राजा ने स्वीकार किया। उसके बाद सद्धर्म के विरुद्ध बोलने वाला द्वेषी और उत्तम मुनियों का शत्रु उस पुरोहित को नगर में से निकाल दिया एवं राजा अपने सर्व कार्यों को छोड़कर सर्व ऋद्धि द्वारा सर्व प्रकार से आदरपूर्वक क्षपक मुनि का सन्मान करने लगा। इस तरह अनशन में तल्लीन हरिदत्त महामुनि को आये हुए विघ्न को भी अतिशय वाले उस मुनि ने शीघ्र रोक लिया। अथवा ऐसे अतिशय वाले मुनि भी कितने हो सकते हैं? इसलिए प्रथम से ही विघ्न का विचारकर अनशन में उद्यम करना चाहिए।
इस प्रकार आगम समुद्र के ज्वार या बाढ़ के समान मृत्यु के साथ लड़ते विजय पताका प्राप्त कराने में सफल हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नामक आराधना के दस अंतर द्वार वाला दूसरा गण संक्रमण द्वार में पडिलेहणा नाम का आठवाँ अंतर द्वार कहा।
अब विघ्नों का विचार करने पर भी जिसके बिना क्षपक मुनि अनशन को करने में समर्थ नहीं होता, उस पृच्छा द्वार को कहते हैं ।।४८४३।।
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