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परगण संक्रमण द्वार-सुस्थित गवेषणा द्वारपडिलेहणा द्वार-हरिदत्त मुनि का प्रबंध
श्री संवेगरंगशाला की गाय का और भूमि का दान करना सुलभ है, परंतु जो प्राणियों को अभयदान देता है, वे पुरुष लोक में दुर्लभ है। महान् दानों का भी फल कालक्रम से क्षीण होता है, परंतु भयभीत आत्मा को अभयदान देने से उसका फल क्षय नहीं होता है। अपना इच्छित तप करना, तीर्थ सेवा करना और श्रुतज्ञान का अभ्यास करना, इन सबको मिलाकर भी अभयदान की सोलहवीं कला को भी प्राप्त नहीं करता है। जैसे मुझे मृत्यु प्रिय नहीं है, वैसे सर्व जीवों को मृत्यु प्रिय नहीं है। इसलिए मरण के भय से डरे हुए जीवों की पंडितों को रक्षा करनी चाहिए। एक ओर सर्व यज्ञ और समग्र श्रेष्ठ दक्षिणा और दूसरी ओर भयभीत प्राणियों के प्राणों का रक्षण करना श्रेष्ठ है। सर्व प्राणियों का जो दान करना और एक प्राणी की दया करना, उसमें सर्व प्राणियों की दया से एक की दया ही प्रशंसनीय है। सर्व वेद, शास्त्र कथन अनुसार सर्व यज्ञ और तीर्थों का स्नान भी वह लाभदायक नहीं होता जब तक उसमें प्राणियों की दया नहीं है। इस तरह हे महायश ! तूं अपने शास्त्रार्थ का भी स्मरण क्यों नहीं करता है? कि जिससे तत्त्व से युक्त होने पर भी जीव दया को स्वीकार नहीं करता है?
इस तरह उपदेश देने पर वह पुरोहित साधु के प्रति दृढ़ द्वेषी बना और अल्प उपशान्त चित्त वाला राजा भद्रिक बना। आचार्य श्री भी भव्य जीवों को श्री जिन कथित धर्म में स्थिर करके वहाँ से निकलकर अन्यत्र विहार करने लगे और नये-नये क्षेत्र, गाँव, नगर आकर आदि में लंबे काल तक विचरणकर पुनः उसी नगर में उचित प्रदेश में वे बिराजमान हुए। फिर वहाँ रहे हुए उस आचार्य का हरिदत्त नाम का साधु अनशन के लिए अपने गच्छ से मुक्त होकर काया की संलेखना करके आचार्यश्री के पास आकर विनयपूर्वक चरणकमल में नमस्कार करके और ललाट प्रदेश में हाथ जोड़कर इस प्रकार विनती करने लगा कि - हे भगवंत ! कृपा करो, मैंने संलेखना कर ली है, अब मुझे संसार समुद्र को तरने के लिए नाव समान अनशन उच्चारणपूर्वक अनुग्रह करो, ।।४८०२ ।। उसके बाद जल्दी ही अपने गण-समुदाय को पूछकर करुणा से श्रेष्ठ चित्तवाले गुण शेखर सूरिजी ने उसकी याचना स्वीकार की। फिर आचार्य ने अनशन के विषय में आने वाले विघ्न का विचार किये बिना ही सहसा ही शुभ मुहूर्त में उसे अनशन में लगा दिया। जब इस अनशन की नगर में प्रसिद्धि हुई तब भक्ति से तथा देखने की इच्छा से उस क्षपक साधु को वंदन करने के लिए लोग हमेशा आने लगें। और इस तरफ उस समय उस शिवभद्र राजा का बड़ा पुत्र अचानक रोग के कारण बीमार पड़ा। रोग निवारण करने के लिए उत्तम वैद्यों को बुलाया, चिकित्सा की और विविध मंत्रादि का उपयोग किया, फिर भी वह रोग शांत नहीं हुआ। इससे किंकर्त्तव्य मूढ़ मन वाला और उदास मुख कमल वाला राजा अत्यंत शोक करने लगा। उस समय मौका देखकर दीर्घकाल से छिद्र देखने में तत्पर एवं धर्म द्वेषी उस पुरोहित ने राजा से कहा कि हे देव ! जहाँ साधु बिना कारण आहार का त्याग कर मरते हों वहाँ सुख किस तरह हो सकता है? ऐसा कहकर अनशन में रहे तपस्वी साधु का सारा वृत्तान्त कहा। उसे सुनकर राजा अत्यंत क्रोधित हुआ और अपने पुरुषों को बुलाकर आज्ञा दी कि -अरे! तुम इस प्रकार कार्य करो कि जिससे ये सब साधु अपना देश छोड़कर शीघ्र निकल जायें। इससे उन्होंने आचार्यश्री के सामने राजा की आज्ञा सुनाई। तब प्रचण्ड विद्या बल वाले एक साधु ने श्री जिनशासन की लघुता होते देखकर आवेशपूर्वक कहा कि - अरे मूढ़ लोगों ! तुम मर्यादा रहित ऐसा क्यों बोल रहे हो? क्या तुम नहीं जानते कि जहाँ मुनिवर्य ने आगम शास्त्रों की युक्ति के अनुसार धर्म क्रिया को स्वीकार किया है उस समय से अशिव आदि उपद्रव चले गये हैं। फिर भी किसी कारण से वह उपद्रव आदि होते है वह भी अपने कर्मों का ही दोष है, फिर साधु के प्रति क्रोध क्यों करते हो? तुम्हारे द्वारा निश्चय ही निष्फल क्रोध किया जा रहा है। अतः हमारे आदेश से राजा को न्याय मार्ग में स्थिर करो। कुतर्क को छोड़ दो। वे दुष्ट सेवक हैं कि जो उन्मार्ग में जाते स्वामी को हित की
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