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________________ श्री संवेगरंगशाला परगण संक्रमण द्वार-सुस्थित गवेषणा द्वारपडिलेहणा द्वार-हरिदत्त मुनि का प्रबंध स्वीकार न करें। अतः उसके कल्याण, कुशलता और सुकाल में यदि भाव में व्याघात नहीं होने वाला है, ऐसा जानकर उसे स्वीकार करें अन्यथा राजा आदि के स्वरूप की पडिलेहणा (जानकारी) के बिना स्वीकार करने से हरिदत्त मुनि के समान आराधना में विघ्न भी आ सकता है ।।४७६२।। इस विषय पर कथा कहते हैं: हरिदत्त मनि का प्रबंध शंखपुर नगर में सर्वत्र प्रसिद्धि को प्राप्त, महाबली और शत्रु समूह का विजेता शिवभद्र नामक राजा था और उसे अति मान्य वेद आदि समस्त शास्त्रों में कुशल बुद्धि मतिसागर नाम का पुरोहित था। उसने राजा को विघ्नरहित राज्य के सुख के लिए दुर्गति का कारणभूत होने पर भी यज्ञ कार्यों में हमेशा के लिए लगा दिया। उसके बाद एक समय अनेक साधुओं के समूह के साथ में गुणशेखर नाम के आचार्य नगर के बाहर उद्यान में पधारें। उनको नमस्कार करने के लिए बाल, वृद्धों सहित नगर के मानवजन महावैभवपूर्वक रथ पालखी आदि वाहन में बैठकर वहाँ गयें। उसी समय में उसी पुरोहित के साथ में राजा भी नगर के बाहर विभाग में वहीं घोड़ों को खिलाने लगा। उस समय कोलाहल पूर्वक राजा ने उस नगर के लोगों को आते-जाते देखकर पूछा कि क्या आज 5 जिससे इस तरह अपने वैभव अनसार श्रेष्ठ अलंकारों से यक्त शरीर वाले लोग यथेच्छ सर्वत्र घूम रहे हैं? फिर परिवार के किसी व्यक्ति ने उसका रहस्य (कारण) कहा। इससे आश्चर्यचकित बना राजा उस उद्यान में गया और उस आचार्यश्री को वंदन नमस्कार करके अपने योग्य स्थान पर बैठा। उसके बाद राजादि पर्षदा के अनुकूल आचार्यश्री ने भी मेघगर्जना के समान गंभीर शब्दों वाली वाणी से धर्म कथा प्रारंभ की। जैसे कि-हे राजन्! सारे शास्त्रों का रहस्य भूत सर्व सुखकारी एक ही जीव दया, प्रशंसा करने योग्य है, जैसे रात्री चंद्रमा के बिना नहीं शोभती वैसे ही धर्म तप, नियम के समूह से युक्त हो तो भी इस दया के बिना लेशमात्र भी नहीं शोभता है। इस दया में रंगे हुए मन वाले गृहस्थ भी देवलोक में उत्पन्न हुए हैं और इससे विमुख मुनि ने भी अत्यंत दुःखदायी नरक को प्राप्त किया है। जो अखूट विशाल और दीर्घ आयुष्य की इच्छा करता है वह कल्पवृक्ष की महान लता सदृश जीव दया का पालन करते हैं। उत्तम मुनियों के द्वारा कही हुई और विशिष्ट युक्ति सहित होने पर भी जो धर्म जीव दया रहित हो उसका भयंकर सर्प के समान दूर से त्याग करना चाहिए। आचार्यश्री के इस तरह कहने पर राजा ने कमल के पत्र समान दृष्टि यज्ञ क्रिया के प्ररूपक पुरोहित के ऊपर फेंकी। उसके बाद अंतर में बढ़ते तीव्र क्रोध वाले पुरोहित ने कहा कि-हे मुनिवर! तुम्हारी अति कठोरता आश्चर्य कारक है कि तूं वेद के अर्थ को नहीं जानता और पुराने शास्त्रों के अल्प भी रहस्य को नहीं जानता, परंतु तूं हमारे यज्ञ की निंदा करता है। आचार्यश्री ने कहा कि-हे भद्र! रोष के आधीन बना हुआ 'तुम वेद पुराण के परमार्थ को नहीं जानते हो,' तुम इस तरह क्यों बोलते हो? हे भद्र! क्या पूर्व मुनियों के द्वारा रचित तेरे शास्त्रों में सर्वत्र जीव दया नहीं कहीं? अथवा क्या उस शास्त्र का यह वचन तूंने नहीं सुना कि-'जो हजारो गायों का और सैंकड़ों अश्वों का दान दे उस दान को सर्व प्राणियों को दिया हुआ अभयदान उल्लंघन कर देता जाता है।' सर्व अवयव वाले स्वस्थ होने पर भी जीव हिंसा करने में तत्पर मनुष्यों को देखकर मैं उनको पंगु, हाथ कटे हुए और कोढ़ी बनना अच्छा समझता हूँ। जो कपिल श्रेष्ठ वर्ण वाली हजार गाय ब्राह्मणों को दान दे और वह एक जीव को जीवन दान (अभयदान) दे वह उसकी सोलवीं कला के भी योग्य नहीं होता है। भयभीत प्राणियों को जो अभयदान देता है उससे अधिक अन्य धर्म इस पृथ्वी तल में एक भी नहीं है। एक जीव को भी अभयदान की दक्षिणा देना श्रेष्ठ है, परंत समझकर एक हजार गाय हजार ब्राह्मणों को देना श्रेष्ठ नहीं है। जो दयाल सर्व प्राणियों को अभयदान देता है वह शरीर मुक्त बने हुए पर-जन्म में किसी से भी भयभीत नहीं होता है। पृथ्वी में सोने 204 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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