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परगण संक्रमण द्वार-पडिलेहणा द्वार
श्री संवेगरंगशाला आश्चर्यपूर्वक ऐसा बोले कि-अहो! बहुत काल पृथ्वी पर परिभ्रमण करने पर भी चावल की ऐसी उत्तम गंध की मनोहरता और स्वादिष्टता को मैंने कहीं पर भी देखा नहीं है। ऐसी व्यंजन सामग्री भी दूसरे स्थान पर नहीं दिखती है, इसलिए मैं इस भोजन को अति अभिलाषा से खाऊँगा। यदि वह ऐसा बोलता है तो वह जितेन्द्रिय नहीं होने से अनशन की प्रसाधना के लिए समर्थ नहीं हो सकता है. इसलिए उसे निषेध करना चाहिए और जिस तरह आया हो उसी तरह वापिस भेज देना चाहिए।।४७४१।।
परंत अनशन करने आने वाला यदि ऐसा भोजन देखकर ऐसा कहे कि-हे महानभाव! मझे ऐसा श्रेष्ठ भोजन देने से क्या लाभ होगा? ऐसा श्रेष्ठ आहार को खाने का मुझे यह कौन सा अवसर है? तो वह महात्मा अनशन करने के लिए योग्य है। ऐसा समझकर उसे स्वीकार करना चाहिए। इस तरह चिकित्सा करते, उनकी खड़े रहना, बैठना, चलना, स्वाध्याय करना, आवश्यक, भिक्षा देना, स्थंडिल भूमि जाना इत्यादि में परस्पर परीक्षा करे, इसके बाद जब वह आराधना करते बार-बार उत्साही हो अथवा आराधना की बार-बार याचना करे, तब स्थानिक आचार्य को भी उसकी इस तरह परीक्षा करनी चाहिए। आचार्य पूछे कि-हे सुंदर! तुमने आत्मा की संलेखना की है? वह यदि उत्तर में ऐसा कहे कि-हे भगवंत! क्या केवल हाड़ और चमड़ी वाले मेरे शरीर को आप नहीं देखते? जैसे सुना न हो वैसे आचार्य पुनः भी पूछे इससे वह क्षपक साधु रोषपूर्वक कहे कि-आप अति चतुर हो कि जो कहने पर भी और दृष्टि से देखने पर भी विश्वास नहीं करते हैं। इस तरह बोलते यदि अपनी अंगुली को मरोड़कर दिखाये कि-हे भगवंत! अच्छी तरह देखो! इस शरीर में अति अल्पमात्र भी मांस, रुधिर या मज्जा है? इस तरह होने पर भी हे भगवंत! अब मैं कौन-सी संलेखना करूँ? उसके बाद आचार्य उसे इस तरह कहे-मैं तेरी द्रव्य शरीर की संलेखना नहीं पूछता तूंने अपनी अंगुलियाँ क्यों मरोड़ी? तेरी कृश काया को क्या मैं दृष्टि से नहीं देखता? मेरी सलाह है कि तुम भाव संलेखना करो इसमें शीघ्रता न करो। सर्वप्रथम इन्द्रिय, कषाय और गारव को कृश (पतले) करो, हे साधु! मैं तेरे इस कृश शरीर की प्रशंसा नहीं करता हूँ। स्थानिक निर्यामक आचार्य द्वारा आराधना के लिए आये हुए को प्रतिबोध करने के लिए ये दो श्लोक कहे हैं। इस तरह परस्पर स्वयं अच्छी तरह परीक्षा करने से उभय पक्षों को भक्त परिज्ञा (अनशन) समय में थोड़ी भी असमाधि नहीं होती है। परंतु अति रभसत्व (सहसा) की हुई धर्म-अर्थ संबंधी प्रयोजन भी विपाक (परिणाम) प्रायः अंत में निवृत्ति के लिए नहीं होता है।
इस प्रकार धर्म रूपी तापस के आश्रम तुल्य और मरण के सामने युद्ध में जय पताका की प्राप्ति करने में सफल कारणभूत संवेगरंगशाला नाम की आराधना के दस अंतर द्वार वाला दूसरा परगण संक्रमण द्वार में परीक्षा नाम का सातवाँ द्वार कहा है।
अब उभय पक्ष की परीक्षा करने पर भी जिसके बिना आराधना के अर्थी का कार्य भविष्य में निर्विघ्न (सिद्ध) न हो अतः पडिलेहणा द्वार कहता हूँ। आठवाँ पडिलेहणा द्वार :
अथवा प्रतिलेखना द्वार, वह पडिलेहणा इस प्रकार से होती है-निश्चय अप्रमत्त मन वाले उत्साही निर्यामक आचार्य गुरु परंपरा से प्राप्त हुआ इस दिव्य निमित्त द्वारा उपसम्पन्न-आये हुए क्षपक की आराधना में विक्षेप होगा या नहीं होगा, उसकी प्रतिलेखना निश्चय करें। उसमें राज्य और क्षेत्र के अधिपति राजादि को गण को और अपने को देखकर यदि वे विघ्न करने वाले न हो तो क्षपक को स्वीकार करें। इस प्रकार पडिलेहणा नहीं करने से बहुत दोष उत्पन्न होते हैं। अथवा किसी अन्य द्वारा उसे परिपूर्ण रूप में जानकर उसे स्वीकार करें अन्यथा
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