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श्री संवेगरंगशाला
परगण संक्रमण द्वार-अनुशास्ति द्वार-परीक्षा द्वार आचार्य श्री की उप-संपदा (निश्रा) को स्वीकार करें। उसमें सर्वप्रथम पच्चीस आवश्यक से शुद्ध गुरु वंदन करके विनय से दोनों हाथ से अंजलि करके सर्व प्रकार से आदरपूर्वक इस तरह कहे-हे भगवंत! आपने संपूर्ण द्वादशांगी रूप श्रुत समुद्र को प्राप्त किया है एवं इस शासन में सफल श्री श्रमण संघ के निर्यामक गुरु हो, आज इस शासन में आप ही श्री जिनशासन रूपी प्रासाद (महल) के आधार रूप स्तंभ हो और संसार रूपी वन में भ्रमण करते थके हुए प्राणियों के समूह के समाधि का स्थान हो। इस संसार में आप ही गति हो, मति हो, और हम अशरणों के शरण हो, हम अनाथों के नाथ भी आप हो, इसलिए हे भगवंत! मैंने मेरे योग्य शेष कर्तव्यों को पूर्ण किया है। मैं आपश्रीजी के चरण कमल में दीक्षा के दिन से आज तक की सम्यग भाव से आलोचना लेकर दर्शन, ज्ञान और चारित्र को अति विशुद्धकर अब दीर्घकाल तक पाली हुई साधुता के फल रूप में निःशल्य आराधना करने की इच्छा करता हूँ।
__ इस प्रकार साधु के कहने पर निर्यामक आचार्य कहे कि-हे भद्र! मैं तेरे मनोवांछित कार्य को निर्विघ्नतापूर्वक शीघ्र से शीघ्र सिद्ध करूँगा। हे सुविहित! तूं धन्य है कि जो इस तरह संसार के संपूर्ण दुःखों का क्षय करने वाली और निष्पाप आराधना करने के लिए उत्साही बना है। हे सुभग! तब तक तूं विश्वस्त और उत्सुकता रहित बैठो कि जब तक मैं क्षण भर वैयावच्च कारक के साथ में इस कार्य का निर्णय करता हूँ।
इस तरह दुर्गति नगर को बंद करने के लिए दरवाजे के भूगल समान, मृत्यु के सामने युद्ध में जय पताका की प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत यह संवेगरंगशाला नाम की आराधना में दस अंतर द्वार वाला दूसरा परगण संक्रमण द्वार का छट्ठा उप-संपदा नाम का द्वार कहा है।
अब उप-संपदा स्वीकार करने पर भी मुनि परंपरा की परीक्षा के अभाव में शुद्ध समाधि को प्राप्त नहीं करते हैं, इसलिए परीक्षा द्वार को कहते हैं :परीक्षा नामक सातवाँ द्वार :
उसके बाद सामान्य साधु अथवा पूर्व में कहे अनुसार उस अनशन की इच्छा वाला आचार्य, उनकी प्रथम प्रारंभ में ही गंभीर बुद्धि से मौनपूर्वक उस गण के आचार्य और साधुओं की परीक्षा करनी चाहिए औरक्या यह भावुक मनवाला (सद्भाव वाला) है अथवा अभावुक (सद्भाव रहित) है? इस तरह उस गच्छ में रहे साधुओं को भी उस आगंतुक क्षपक साधु की विविध प्रकार से परीक्षा करनी चाहिए। और उस गच्छ के आचार्य को भी केवल अनशन करने आने वाले की ही नहीं परंतु अपने साधुओं की भी परीक्षा करनी चाहिए कि-मेरे साधु आगंतुक के प्रयोजन को सिद्ध करने वाले हैं या नहीं? उसमें आगंतुक को, उस गण के आचार्य का विचार इस तरह करना चाहिए कि-यदि उस आने वाले को देखकर हर्ष से विकसित नेत्र वाले (स्वागत) ऐसा बोलते स्वयं खड़े हो जायें अथवा औचित्य करने के लिए अपने मुनियों को सामने भेजे तो वह प्रस्तुत कार्य को सिद्ध करेगा ऐसा जानना। और यदि मुख की कांति मलीन हो, शून्य दृष्टि से देखे तथा मंद अथवा टूटी-फूटी आवाज से बुलाये तो ऐसे को प्रस्तुत प्रवृत्ति में सहायता के लिए अयोग्य जानना। जब भिक्षा के लिए जाये तब मुनियों की भी परीक्षा के लिए कहना कि-अहो! तुम मेरे लिए दूध रहित चावल लेते आना। ऐसा कहने के बाद यदि वे साधु परस्पर हँसें अथवा उद्धत जवाब दें तो वे असद्भाव वाले हैं ऐसा जानना। परंतु वे यदि सहर्ष ऐसा कहें किआपश्री ने हमको अनुगृहित किया है, सर्व प्रयत्न से भी मिलेगा तो ऐसा ही करेंगे, तो उन्हें सद्भाव वाला समझना। इस तरह आये हुए को स्थानिक साधुओं की परीक्षा करनी चाहिए। स्थानिक साधु आगंतुक की भी इसी तरह परीक्षा करें। आगंतुक के बिना माँगने पर भी श्रेष्ठ चावल आदि उत्तम आहार को लाकर दे। इससे यदि वह
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