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परगण संक्रमण द्वार- उप-संपदा द्वार
श्री संवेगरंगशाला करते हैं और इसके कारण कई बार मृत्यु भी हो जाती है। इसी प्रकार मोहमूढ़ मति वाले साधु को सम्यग् उद्धार (आलोचना) नहीं किया हो और आत्मा में ही रखा हो, इस प्रकार यह भाव शल्य भी इस भव में केवल अपयश आदि ही नहीं करता, किंतु संयम जीवन का नाश होने से चारित्र के अभाव रूपी आत्मा का भी मरण करता है और परजन्मों में अशुभ कर्मों का आक्रमण, अति पोषण करनेवाला कर्मबंध और दुर्लभ बोधित्व को प्राप्त करता है । इसलिए बोधि लाभ से भ्रष्ट आत्मा जन्म-मरण रूपी आवर्ती (चक्र) वाला, दुःखरूपी पानी वाला और अनादि अनंत भयंकर संसार समुद्र में अनंत काल तक दुःखों को भोगता है, ऊँची-नीची विचित्र प्रकार की योनियों में परिभ्रमण करता है और अति तीक्ष्ण दुःखरूपी अग्नि से सीझता है। तथा अज्ञानी जीव सशल्य मरण से इस संसार महासमुद्र में चिंतामणी तुल्य श्रमण धर्म का तथा तप-संयम को प्राप्त करके भी उसका नाश करता है। सशल्य मरण से मरकर आदि अंतरहित अति गाढ़ संसार अटवी में पड़ा हुआ दीर्घकाल तक भ्रमण करता है। शस्त्र, जहर अथवा नाराज हुआ वेताल, उलटा उपयोग किया यंत्र अथवा गुस्से से चढ़ा हुआ क्रोधी सर्प ऐसा नहीं करता, वैसे जो मृत्यु के समय भाव शल्य का उद्धार नहीं करें अर्थात् उसकी आलोचना नहीं करता है तो वह दुर्लभ बोधित्व को और अनंत संसार रूप परिभ्रमण को प्राप्त करता है ।। ४७०१ । । इसलिए निश्चय ही प्रमाद के वश एक मुहूर्त मात्र भी शल्य युक्त रहना वह असह्य है। इसलिए लज्जा और गारव से मुक्त तूं शल्य का उद्धार कर अर्थात् उसकी आलोचना कर । क्योंकि नये-नये जन्म रूपी संसार लता मूलभूत शल्य को मूल में से उखाड़ने के लिए भय मुक्त बना हुआ धीर पुरुष संसार समुद्र को पार कर जाता है। यदि निर्यामक आचार्य भी इसी तरह आराधक साधु को अनर्थों की जानकारी नहीं दे तो शल्य वाले उस आराधक को भी आराधना करने से क्या फल मिलेगा? इस कारण से आराधक को हमेशा अपायदर्शक की निश्रा में अपनी आत्मा को रखनी चाहिए। क्योंकि वहाँ निश्चय आराधना होती है।
८. अपरिश्रावी
लोहे के पात्र में रखा हुआ पानी बाहर नहीं जाता है वैसे प्रकट हुए अतिचार जिसके मुख से बाहर नहीं निकलते उसे ज्ञानी पुरुषों ने अपरिश्रावी कहा है। जो गुप्त बात को जाहिर करता है वह आचार्य उस साधु का या अपना, गच्छ का, शासन का, धर्म और आराधना का त्याग करने वाला जानना । आलोचक कहे हुए दोष अन्य को कहने से कोई लज्जा से और गारव (मान) द्वारा विपरीत परिणाम वाला अधर्मी बन जाये, कोई भाग जाए या कोई मिथ्यात्व को प्राप्त करें। रहस्य को प्रकट करने से द्वेषी बना हुआ कोई उस आचार्य को मार दे, आत्मा का भेदन - आपघात करे और गच्छ समुदाय में भेदन (झगड़ा) करें अथवा प्रवचन का उपहास करें इत्यादि दोष को धारण करने वाले आचार्य नहीं होते हैं। इस कारण से अपरिश्रावी निर्यामक आचार्य की खोज करनी चाहिए। इस तरह आठ गुण वाले आचार्य की चरण कृपा से आराधक प्रमाद शत्रु को खत्मकर आराधना की संपूर्ण साधना करें।
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इस तरह पाप रूपी कमल को जलाने में हिम के समूह समान और यम के साथ युद्ध में जय पताका की प्राप्ति कराने में सफल हेतुभूत संवेगरंगशाला रूपी आराधना के दस अंतर द्वार वाला गण संक्रमण नामक दूसरे द्वार में सुस्थित ( गवेषणा) नामक पाँचवां अंतर द्वार कहा है ।
इस तरह कही हुई सुस्थित की गवेषणा भी जिसके अभाव में फल की साधना में समर्थ न बने इसलिए अब वह उप-संपदा द्वार को कहता हूँ ।
उप-संपदा नामक छट्टा अंतर द्वार :
इस तरह निर्यामक के गुणों से युक्त और ज्ञान क्रिया वाले आचार्य श्री की खोज करके वह क्षपक उस
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