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श्री संवेगरंगशाला
परगण संक्रमण द्वार-सुस्थित गवेषणा द्वार कराते हैं तो वह क्षपक साधु दोषों से निवृत्त नहीं हो सकता और इसके बिना वह गुणवान् नहीं बन सकता । इसलिए उस क्षपक के हित का चिंतन करते ओवीलग आचार्य को निश्चय ही क्षपक साधु के सब दोषों को प्रकट करवाने चाहिए। ५. प्रकुवी जाना,
आना,
अर्थात् शुद्धि करने वाला, शय्या, संथारा, उपधि, संभोग (सहभोजनादि) आहार, खड़े रहना, बैठना, सोते रहना, परठना अथवा कर्म निर्जरा करना इत्यादि में और एकाकी विहार अथवा अनशन स्वीकार करने में, अति श्रेष्ठ उपकार को करते जो आचार्य, सर्व आदरपूर्वक, सर्व शक्ति से और भक्ति से अपने परिश्रम की उपेक्षा करके भी तपस्वी की सार संभाल में हमेशा प्रवृत्त रहे वही प्रकुर्वक आचार्य कहलाते हैं। थके हुए शरीर वाले क्षपक प्रतिचरण (सेवा) गुण से प्रसन्नता को प्राप्त करते हैं। इसलिए क्षपक को प्रकुर्वी के पास रहना चाहिए।
६. निर्वापक (निर्वाहक) :― अर्थात् निर्वाह करने वाले निर्यामक अथवा निर्वाहक- संथारा, आहार या पानी आदि अनिष्ट देने से अथवा बहुत विलम्ब द्वारा देने से, वैयावच्च करने के प्रमाद से या नवदीक्षित आदि अज्ञ साधुओं को सावद्य वाणी द्वारा अथवा ठण्डी, गरमी, भूख, प्यास आदि से, अशक्त बनने से या तीव्र वेदना से जब क्षपक मुनि क्रोधित हो अथवा सामाचारी- मर्यादा को तोड़ने की इच्छा करें, तब क्षमा से युक्त और मान से मुक्त निर्वापक आचार्य को क्षोभ प्राप्त किये बिना साधु के चित्त को शांत करना चाहिए । रत्न के निधान रूप अनेक प्रकार के अंग सूत्रों अथवा अंग बाह्य सूत्रों में अति निपुण तथा उसके अर्थों को अच्छी तरह कहने वाला और दृढ़तापूर्वक उसका पालक, विविध सूत्रों को धारण करने वाला, विविध रूप में व्याख्यान कथा करने वाला, हित उपायों का जानकार, बुद्धिशाली और महाभाग्यशाली निर्वापक आचार्य क्षपक को समाधि प्राप्त कराने के लिए स्नेहपूर्वक मधुर और उसके चित्त को अच्छी लगे इस तरह उदाहरण तथा हेतु से युक्त कथा उपदेश को सुनाए । परीषहरूपी तरंगों से अस्थिर बना हुआ, संसार रूपी समुद्र के अंदर चक्र में पड़ा हुआ और संयम रत्नों भरा हुआ साधुता रूपी नाव को मल्लाह के समान निर्वापक डूबते हुए बचाये। यदि वह बुद्धि बल को प्रकट करने वाला आत्महितकर, शिव सुख को करने वाला मधुर और कान को पुष्टिकारक उपदेश नहीं दे तो स्व और पर आराधना का नाश होता है। इस कारण से ऐसे निर्यामक आचार्य ही क्षपक मुनि को समाधिकारक बन सकते हैं और उस क्षपक को भी उसके द्वारा ही निश्चित आराधना होती है।
७. अपायदर्शक :- संसार समुद्र अथवा आराधना के किनारे पहुँचा हुआ भी किसी क्षपक मुनि को विचित्र कर्म के परिणामवश तृषा, भूख इत्यादि से दुर्ध्यान आदि भी होता है। तो भी कोई पूजाने की इच्छावाला, कीर्ति की इच्छा वाला, अवर्णवाद से डरने वाला, निकाल देने के भय से अथवा लज्जा या गारव से विवेक बिना का क्षपक मुनि यदि सम्यग् उपयोगपूर्वक उस दुर्ध्यानादि की आलोचना नहीं करे तो उसे भावी में अनर्थों के कारण बतलाकर इस प्रकार जो समझावे उसे अपायदर्शक जानना । आलोचना नहीं करने से इस भव में 'शठ या शल्य है' ऐसी मान्यता तथा अपकीर्ति, अतिरिक्त इस जन्म में भाव बिना की कष्टकारी की हुई क्रिया भी दुर्गति का कारण होती है । मायाचार से परभव में अनर्थ का कारण होता है, इससे निश्चित दुःखी होता है, इत्यादि जो समझाये वही सूरि नाम से अपायदर्शी कहलाते हैं । इस प्रकार के गुण समूह वाला वह अपायदर्शी मधुर वचनों से कहे कि - हे महाभाग ! क्षपक! तूं इस का सम्यग् रूप से विचार कर। जैसे कांटे आदि का उद्धार नहीं करने से वह द्रव्य शल्य भी निश्चय मनुष्य के शरीर में केवल वेदना ही नहीं करता, परंतु ज्वर, दाह जलन, शरीर में चींटियों का निकलना, ज्वाला, गर्दभ नाम का रोग दुःसाध्यलूता (करोलियों का) रोग आदि अनेक रोग उत्पन्न
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