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________________ समाधि लाभ द्वार-प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार श्री संवेगरंगशाला जहाँ व्यतिरेक युक्त हो जैसा कि १-कीचड़ बहुत न हो, २-त्रस जीवोत्पत्ति बहुत न हो, ३-स्थंडिल भूमि निरवद्य हो, ४-वसति निर्दोष हो, ५-गोरस सुलभ मिलता हो, ६-लोग भद्रिक परिणामी और बड़े परिवार वाले हों, ७वैद्य भक्ति वाले हों, ८-औषधादि सुलभ मिलते हों, ९-श्रावक संपत्तिवान और बड़े परिवार वाले हों, १०-राजा भद्रिक हो, ११-अन्य धर्म वालो से उपद्रव नहीं होता हों, १२-स्वाध्याय भूमि निर्दोष हों और १३-आहार पानी आदि सुलभ मिलते हों। इसके अतिरिक्त जहाँ साधर्मिक लोग बहुत हों, जिस देश में राजादि के उपद्रव न हों, आर्य हो और राज्य की सीमा न हो, और जो संयम की वृद्धि में एक हेतुभूत हो उस देश में साधु महाराज को विहार करना योग्य है। (चातुर्मास करना योग्य है।) गुणकारी राज कथा :- प्रचंड भुजा दण्डरूपी मंडप में जिसने चक्रवर्ती की संपूर्ण ऋद्धि को स्थापित की है अर्थात् अपने भुजाबल से छह खंड की ऋद्धि प्राप्त कर उसका रक्षण करता था जिसका पाद पीठ नमस्कार करते मुकुटबद्ध राजाओं के मस्तक मणि की किरणों से व्याप्त था परंतु भरत महाराजा के अंगुली से रत्न जड़ित अंगूठी निकल जाने से संवेग वाला हुआ, और उसने अंतःपुर के मध्य रहते हुए भी केवल ज्ञान प्राप्त किया। इस प्रकार स्त्री, भक्त, देश और राजा की कथा भी धर्म रूपी गुण का कारण होने से वह विकथा नहीं है। इस तरह यदि विकथा रूपी ग्रह से आच्छादित धर्म तत्त्व वाले के धर्म का नाश होता है और धर्म के नाश से गुण का नाश होता है। इसलिए संयम गुण में उपयोग वाले को श्रेष्ठ धर्म कथा की प्रवृत्ति करना ही योग्य है। इस प्रकार पाँचवाँ विकथा नाम का प्रमाद कहा है और इसे कहने से मद्यादि लक्षण वाले पाँचों प्रकार के प्रमाद कहे गये हैं। जआ प्रमाद का स्वरूप :- शास्त्र के जानकार ज्ञानियों ने द्यत नामक प्रमाद को छठा प्रमाद रूप में कहा है और उसे लोक और परलोक का बाधक रूप भी कहा है। उसमें इस लोक के अंदर जुआ नामक प्रमादरूपी दुर्जय शत्रु से हारे हुए मनुष्य के समान चतुरंग सैन्य सहित समग्र राज्य को भी क्षण में हार जाता है। वैसे धन, धान्य, क्षेत्र, वस्तु, सोना, चाँदी, मनुष्य, पशु और सारा घर का सामान संपत्ति भी हार जाता है। अधिक क्या कहें? शरीर के ऊपर रही लंगोट को भी जुएँ में हार कर मार्ग में गिरे पत्ते रूपी कपड़े से गुह्य भाग को ढांकता है। ऐसा मूढ़ात्मा जुआरी सर्वस्व हारने पर भी निश्चय से हाथ पैर आदि शरीर के अवयवों को भी जुआरियों को होड़ शर्त में देकर जुएँ को ही खेलता है। जुआरी रणभूमि में डरने वाला, धन नाश में बेकदरी वाला और शत्रु को जीतनेवाले के एक लक्ष्य वाले राजपुत्र के समान विलास करता है। अथवा जुआरी भूख प्यास की अवगणना कर ठंडी-गरमी, डाँस-मच्छर की भी अवगणना कर, अपने सुख, दुःख को भी नहीं गिनता, स्वजन आदि का राग नहीं करता, दूसरों के द्वारा होती हंसी को भी नहीं मानता, शरीर की भी रक्षा नहीं करता, वस्त्र रहित शरीरवाला, निद्रा को छोड़ते तथा चपल घोड़े के समान चंचल इन्द्रियों के वेग को दूसरी ओर खींचकर प्रस्तुत विषय में स्थिर एकाग्रता धारण करने वाला, ध्यान में लीन महर्षि के समान है। अर्थात् महर्षि के समान जुआरी होता है। जीर्ण फटे हुए कपड़े वाला, खाज से शरीर में खरोंच वाला, रेखाओं का घर, खड़ी लगे अंग वाला, चारों तरफ बिखरे हए बाल वाला. कर्कश स्पर्श वाली चमडी वाला. कमर में बांधे हए चमडे के के पट्टे की रगड़ से हाथ में आंटी के समूह वाला और उजागरे से लाल आँखों वाले जुआरी की किसके साथ तुलना कर सकते इस तरह से जुआरी का प्रतिदिन जुआ बढ़ता जाता है उसमें दृढ़ राग वाला, क्षण-क्षण में अन्यान्य लोगों के साथ में कषायों को करने वाला, वह बिचारा घर में कुछ भी नहीं मिलने पर जुएँ में स्त्री को भी हारता है फिर - 311 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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