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________________ श्री संवेगरंगशाला समाधि लाभ द्वार- प्रमाद त्याग नामक चौथा द्वार उसको छुड़ाने के लिए चोरी करने की इच्छा करता है, बाद में चोर के परिणाम वाला वह चोरी में ही प्रवृत्ति करता है और इस तरह प्रवृत्ति करते वह पापी तीसरा पाप स्थानक में कहे सभी दोषों को प्राप्त करता है। और इस प्रकार समस्त अनर्थों के समूह का निस्तार करने के लिए कुलदेवी, यक्ष, इन्द्र आदि के पास मनौती मानता है कि 'वह शत्रु अधिक दुःख को प्राप्त करें। सारे जुआरी का नाश हो जाएँ। मेरे अनर्थ शांत हो जाये। और मेरे पास बहुत धन हो जाये।' इस तरह चिंतन करते अपूर्ण इच्छावाले उस जुआरी द्वारा वध, बंधन, कैद, अंगों का छेदन तथा मृत्यु को भी प्राप्त करता है, और इस तरह जुएँ में आसक्त कुल, शील, कीर्ति, मैत्री, पराक्रम अपना कुलक्रम कुलाचार, शास्त्र, धर्म, अर्थ और काम का नाश करता है। इस प्रकार इस लोक में गुणों से रहित लोगों में धिक्कार को प्राप्त करता जुआरी सद्गति के हेतुभूत सम्यग् गुणों को प्राप्त करने में क्या समर्थ हो सकता है ? कामुक मनुष्य तो काम क्रीड़ा से खुजली करने के समान सुख वासना जन्य अल्पमात्र भी कुछ सुख का अनुभव करता है। परंतु कुत्ते के समान रस रहित पुरानी सूखी हड्डी के टुकड़ों को चबाने तुल्य जुआँ खेलने से जुआरी निश्चय क्या सुख का अनुभव कर सकता है? जुएँ से घर की संपत्ति, शरीर की शोभा, शक्ति, शिष्टता रूप संपत्ति और सुख संपत्ति अथवा इस लोक परलोक के गुणरूपी संपत्ति सब शीघ्र नाश होती है। इस विषय में शास्त्र के अंदर राज्य आदि को हारने वाले नल राजा, युधिष्ठिर आदि राजाओं के अनेक प्रकार के कथानक सुनने में आते हैं ।। ७४५७ ।। और दूसरे (१) अज्ञान, (२) मिथ्या ज्ञान, (३) संशय, (४) राग, (५) द्वेष, (६) श्रुति - स्मृति भ्रंश, (७) धर्म में अनादर तथा अंतिम (८) मन, वचन, काया योगों का दुष्प्रणिधान। इस तरह प्रस्तुत प्रमाद के आठ भेद भी कहे हैं। (१) अज्ञान :- ज्ञानियों ने ज्ञान के अभाव को अज्ञान कहा है और वह निश्चय ही सारे जीवों का भयंकर शत्रु है । कष्टों से भी यह अज्ञान परम कष्टकारी है कि जिससे पराधीन बना यह जीव समूह अपने भी हित अहित के अर्थ को अल्पमात्र भी जान नहीं सकता। केवल यहाँ ज्ञानाभाव वह अल्पता की अपेक्षा से जानना, अर्थात् अल्पज्ञान को अज्ञान कहा है। परंतु सर्वथा ही अभाव नहीं समझना । जैसे कि - यह कन्या छोटे पेट वाली है। यद्यपि ज्ञान की अल्पता होने पर भी शास्त्र के अंदर माषतुष आदि को केवल ज्ञान हुआ ऐसा सुना जाता है, तो भी निश्चय अति ज्ञानत्व ही श्रेष्ठ है। क्योंकि – जैसे-जैसे अतिशय रूप रस के विस्तार से भरपूर नये-नये श्रुत का अवगाहन करता है वैसे-वैसे नयी-नयी संवेग रूप श्रद्धा से मुनि प्रसन्नता का अनुभव करता है । माषतुष मुनि आदि को उत्तम गुरु की परतंत्रता से निश्चय ज्ञानित्व ही योग्य है, फिर भी बहुत ज्ञान के अभाव से अज्ञान जानना । तथा प्रायः कर प्रमाद दोष से जीवों को अज्ञान होता है, इसलिए कारण में कार्य के उपचार से अज्ञान को ही प्रमाद कहा है। (२) मिथ्या ज्ञान :- जो थोड़ा भी ज्ञान भव के अंत का कारण होता है वह सम्यग् ज्ञान माना गया है और दूसरा ज्ञान ऐसा नहीं है, उसे यहाँ मिथ्या ज्ञान कहा है। पूर्व में मिथ्यात्व पाप स्थानक के अंदर वर्णन किया है, इस ग्रंथ में है। वहां से मिथ्या ज्ञान को जान लेना । (३) संशय :- यह भी मिथ्या ज्ञान का ही अंश है। क्योंकि श्री जिनेश्वर के प्रति अविश्वास से होता है, वह देश गत और सर्वगत दो प्रकार से होता है। यह संशय श्री जिन कथित जीवादि पदार्थों में मन को अस्थिर करने से होता है और निर्मल भी सम्यक्त्व रूपी महारत्न को अति मलिन करता है। इस कारण जीवादि पदार्थ में संशय नहीं करना चाहिए । 312 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004037
Book TitleSamveg Rangshala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti Bhinmal
Publication Year
Total Pages436
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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