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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ दार-अरति रति द्वार-क्षल्लक कुमार मुनि की कथा अंगर्षि वहाँ आया, इससे क्रोधित हुए उपाध्याय ने कहा कि-अरे पापी! ऐसा अकार्य करके अभी तूं घर पर आता है? मेरी दृष्टि से दूर हट जा, तुझे पढ़ाने से क्या लाभ? ।
वज्रपात समान यह दुस्सह कलंक सुनकर अति खेद को करते वह अंगर्षि इस तरह विचार करने लगा कि-हे पापी जीव! पूर्व जन्म में इस प्रकार का कोई भी कर्म तूंने किया होगा, जिसके कारण यह अति दुस्सह संकट आया है। इस तरह संवेग को प्राप्त करते, उसने पूर्व में अनेक जन्मों के अंदर चारित्र धर्म की आराधना की थी ऐसा उस समय उत्पन्न जाति स्मरण ज्ञान से देखा और शुभ ध्यान से क्षपक श्रेणि पर चढकर कर्मों का विनाश करके केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी को प्राप्त किया। तथा देव और मनुष्यों ने उसकी पूजा की और रुद्र को उसी देवों ने 'पापी तथा अभ्याख्यान देने वाला है' ऐसी उद्घोषणा कर सर्वत्र बहुत निंदा की। यह सुनकर क्षपक मुनि! तूं भी अभ्याख्यान से विरति प्राप्त कर कि जिससे इच्छित गुण की सिद्धि में हेतुभूत समाधि को शीघ्र प्राप्त हो। यहाँ तक यह तेरहवाँ पाप स्थानक अल्पमात्र कहा है, अब अरति रति नामक चौदहवाँ पाप स्थानक कहते हैं।
(१४) अरति रति पाप स्थानक द्वार :- अरति और रति दोनों का एक ही पाप स्थानक कहा है, क्योंकि उस विषय में उपचार (कल्पना) विशेष से अरति भी रति और रति भी अरति होती है। जैसे कि-जो वस्त्र मुलायम न हो उसे धारण करने में अरति होती है, और वही वस्त्र मुलायम हो तो उसे धारण करने में रति होती है, मुलायम धागे वाला वस्त्र धारण करने में रति होती है, वही वस्त्र दूसरी ओर से जहाँ मुलायम धागे वाला न हो उसे धारण करने में अरति होती है। जैसे इच्छित वस्तु की प्राप्ति नहीं होने से जिस पर अरति होती है वही अरति उसकी प्राप्ति होते ही रति रूप में परिवर्तन हो जाती है। तथा यहाँ उस प्रस्तुत वस्तु की प्राप्ति से जो रति होती है, वही उस वस्तु के नाश होते ही अरति रूप में परिवर्तन होती है। अथवा किसी बाह्य निमित्त बिना भी निश्चय अरति मोह नामक कर्म के उदय से शरीर में ही अनिष्ट सूचक जो भाव होते हैं वह अरति जानना, उसके आधीन से आलसु, शरीर से व्याकुल वाला, अचेतन बना हुआ और इस लोक, परलोक के कार्य करने में प्रमादी बने जीव को किसी भी प्रकार के कार्य में उत्साहित करने पर भी वह कभी उत्साहीत नहीं होता है, ऐसा वह मनुष्य इस जीव लोक में बकरी के गले में आंचल के समान निष्फल जीता है। तथा रति भी वस्तु में राग से आसक्त चित्त वाला कीचड़ में फंसी हुई वृद्ध गाय के समान उस वस्तु से छुटने के लिए अशक्त बना जीव इस लोक के कार्य को नहीं कर सकता है तो फिर अत्यंत प्रयत्न से स्थिर चित्त से साध्य जो परलोक का कार्य है उसे वह किस तरह सिद्ध करेगा? इस तरह अरति और रति को संसार भावना का कारण जानकर हे क्षपक मुनि! तूं क्षण भर भी उसका आश्रय मत करना अथवा असंयम में अरति को भी कर और संयम गुणों में रति को कर। इस तरह करते तूं निश्चय आराधना को प्राप्त करेगा। अधिक क्या कहें? संसार का कारण भूत अप्रशस्त अरति रति का नाश करके संसार से छुड़ानेवाले धर्मरूपी बाग में प्रशस्त अरति को कर अधर्म में प्रशस्त अरती कर। हे धीरपुरुष! यदि तुझे समता के परिणाम से इष्ट विषय में रति न हो और अनिष्ट विषय में अरति न हो तो तूं आराधना को प्राप्त करता है। संयम भार को उठाने में थका हुआ क्षुल्लक कुमार मुनि के समान धर्म में अरति और अधर्म में रति, ये दोनों पुरुष को संसार में शोक के पात्र बना देता है। असंयम में अरति से, संयम में रति से पुनः सम्यक् चेतना को प्राप्त कर वही मुनि जैसे पूज्य बना, वैसे संसार में पूज्य बनता है ।।६२८५।। वह इस तरह :
क्षुल्लक कुमार मुनि की कथा साकेत नामक श्रेष्ठ नगर में पुंड' के नाम का राजा था, उसे कंडरिक नाम का छोटा भाई था। छोटे भाई 266
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