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समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-क्षल्लक कुमार मुनि की कथा श्री संवेगरंगशाला की यशोभद्रा नाम की पत्नी थी। एक दिन अत्यंत मनोहर अंग वाली घर के प्रांगण में घूमती हुई उसे देखकर पुंडरिक अत्यंत आसक्त बना, उसने उसके पास दूती को भेजा और लज्जायुक्त बनी यशोभद्रा ने उसे निषेध किया। राजा ने फिर भेजा. बाद में राजा के अति आग्रह होने पर उसने उत्तर दिया कि क्या आपको छोटे भाई से भी लज्जा नहीं आती कि जिससे ऐसा बोल रहे हो? अतः राजा ने कंडरिक को गुप्त रूप से मरवा दिया और फिर प्रार्थना की तब ब्रह्मचर्य खंडन के भय से शीघ्र आभूषणों को लेकर वह राजमहल से निकल गयी और एकाकी भी वृद्ध व्यापारी से पितृभाव को धारणकर उसके साथ श्रावस्ती नगर में पहुँच गयी। वहाँ श्री जिनसेन सूरि की शिष्या कीर्तिमती नाम की महत्तरा साध्वी को वंदन के लिए गयी और वहाँ सारा वृत्तांत कहा। साध्वी का उपदेश सुनकर उसे वैराग्य हुआ और दीक्षा स्वीकार की। परंतु 'गर्भ की बात करूँगी तो मुझे दीक्षा नहीं देंगे' अतः अपने गर्भ की बात महत्तरा को नहीं कहीं। कालक्रम से गर्भ बढ़ने लगा, तब महत्तरा ने उससे एकान्त में कारण पूछा, तब उसने भी सारा सत्य निवेदन किया, फिर जब तक पुत्र का जन्म हो तब तक उसे गुप्त ही रखा। फिर उसके पुत्र का जन्म हुआ, श्रावक के घर बड़ा हुआ और बाद में आचार्य श्री के पास उसने दीक्षा ली, उसका नाम क्षुल्लक कुमार रखा और साधु के योग्य समग्र सामाचारी को पढ़ाया, जब यौवन वय प्राप्त किया, उस समय संयम पालन करने के लिए असमर्थ बन गया। दीक्षा छोड़ने के परिणाम जागृत हुए और इसके लिए माता को पूछा। साध्वी माता ने अनेक प्रकार से उसे रोका, फिर भी नहीं रहा, तब माता ने फिर कहा कि-हे पुत्र! मेरे आग्रह से बारह वर्ष तक पालन कर, उसने वह स्वीकार किया। वे बारह वर्ष जब पूर्ण हुए तब पुनः जाने की इच्छा प्रकट की, तब साध्वी माता ने कहा कि मेरी गुरुणी को पूछो? उसने भी उतना काल बारह वर्ष रोका और इसी प्रकार
हाराज ने भी बारह वर्ष रोका ।।६३००।। इसी तरह उपाध्याय ने भी बारह वर्ष रोका। इस तरह अड़तालीस वर्ष व्यतीत हो गये, फिर भी नहीं रुकने से उसकी माता ने उपेक्षा की और केवल पूर्व की संभालकर रखी, उसके पिता के नाम की अंगूठी और रत्न कंबल उसे देकर कहा कि-हे पुत्र! इधर-उधर कहीं पर मत जाना, परंतु पुंडरिक राजा तेरे पिता के बड़े भाई हैं। उसे यह तेरे पिता की नाम वाली अंगूठी दिखाना कि जिससे वे तुझे जानकर अवश्य राज्य देंगे। इसे स्वीकारकर क्षुल्लक कुमार मुनि वहाँ से निकल गया और कालक्रम से साकेतपुर में पहुँचा।
उस समय राजा के महल में आश्चर्यभूत नाटक चल रहा था, इससे 'राजा का दर्शन फिर करूँगा' ऐसा सोचकर वहीं बैठकर वह एकाग्रता से नाटक को देखने लगा और नटी समग्र रात नाचती रही, अतः अत्यंत थक जाने से नींद आते नटी को विविध कारणों के प्रयोग से मनोहर बनें नाटक के रंग में भंग पड़ने के भय से अक्का ने प्रभात काल में गीत गाकर सहसा इस प्रकार समझाती है 'हे श्यामसुंदरी! तूंने सुंदर गाया है, सुंदर बजाया है, और सुंदर नृत्य किया है। इस तरह लम्बी रात्री तक नृत्य कला बतलाई है, अब रात्री के स्वप्न के अंत में प्रमाद मत कर।' यह सुनकर क्षुल्लक मुनि ने उसको रत्न कंबल भेंट किया। राजा के पुत्र ने कुंडल रत्न दिया, श्रीकान्त नाम की सार्थवाह पत्नी ने हार दिया, मंत्री जयसंघी ने रत्न जड़ित सुवर्णमय कड़ा अर्पण किया और महावत ने रत्न का अंकुश भेंट किया, उन सबका एक-एक लाख मूल्य था।
इन सबका रहस्य जानने के लिए राजा ने पहले ही क्षुल्लक को पूछा कि तूंने यह कैसे किया? इससे उसने मूल से ही अपना सारा वृत्तांत सुनाकर कहा कि मैं यहाँ राज्य के लिए आया हूँ, परंतु गीत सुनकर बोध हुआ है और अब विषय की इच्छा रहित हुआ हूँ तथा दीक्षा में स्थिर चित्तवाला बना हूँ। इसलिए 'यह गुरु है' ऐसा मानकर इसको रत्न कंबल दे दिया है। फिर उसे पहचान कर राजा ने कहा कि-हे पुत्र! यह राज्य स्वीकार कर,
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