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श्री संवेगरंगशाला
समाधि लाभ द्वार-प्रथम अनुशास्ति द्वार-पैशुन पाप स्थानक द्वार तब क्षुल्लक ने उत्तर दिया कि-शेष आयुष्य में अब चिरकालिक संयम को निष्फल करने वाले इस राज्य से क्या लाभ है? इसके बाद राजा ने पुत्र आदि को पूछा कि-तुम्हें दान देने में क्या कारण है? तब राजपुत्र ने कहा किहे तात! आपको मारकर मुझे राज्य लेने की इच्छा थी परंतु मुझे यह गीत सुनकर राज्य से वैराग्य हुआ है, तथा सार्थवाह पत्नी ने कहा कि मेरे पति को परदेश गये बारह वर्ष व्यतीत हो गये हैं, इसलिए मैंने विचार किया था कि दूसरे पति को स्वीकार करूँ, ऐसी आशा से-'किसलिए दुःखी होऊँ" ऐसा विचार करती थी। उसके बाद मंत्री ने कहा कि-हे देव! 'अन्य राजाओं के साथ में संधि करूँ अथवा नहीं करूँ" इस तरह पूर्व में विचार करता था
और महावत ने भी कहा कि-सीमा के राजा कहते थे कि पट्टहस्ति को लाकर दे अथवा उसको मार दे। इस तरह बहुत कहने से मैं भी चिरकाल से झूले के समान शंका से चलचित्त परिणाम वाला रहता था, परंतु इसकी बात सुनकर सावधान हो गया और अपूर्व अमूल्य वस्तु भेंट की। उन सबके अभिप्रायों को जानकर प्रसन्न हुए पुंडरिक राजा ने उनको आज्ञा दी कि-'तुम्हें जो योग्य लगे वैसा करो।' तब इस प्रकार का द्रोह रूप अकार्य करके हम कितने लंबे काल तक जी सकेंगे? ऐसा कहकर वैराग्य होते उन सबने उसी समय क्षुल्लक के पास दीक्षा ली और सकल जन पूज्य बनें। उन महात्माओं ने उनके साथ विहार किया। इस प्रकार इस दृष्टांत से हे क्षपक मुनि! तूं मन वांछित अर्थ की सिद्धि के लिए असंयम में अरति कर और संयम मार्ग में रति को कर। इस तरह चौदहवें पाप स्थानक को अल्पमात्र कहकर अब पैशुन्य नामक पन्द्रहवाँ पाप स्थानक द्वार कहता हूँ ।।६३२६।।
(१५) पैशुन्य पाप स्थानक द्वार :- गुप्त सत्य अथवा असत्य दोष को प्रकाशित रूप जो चुगली का कार्य करता है वह इस लोक में पैशुन्य कहलाता है। मोहमूढ़ इस प्रकार पैशुन्य करने वाला उत्तम कुल में जन्म लेने वाला भी, त्यागी और मुनि भी इस लोक में 'यह चुगलखोर है' ऐसा बोला जाता है। इस जगत में मनुष्यों की वहाँ तक मित्रता रहती है, जब तक शुभ चित्त रहता है और वहाँ तक ही मैत्री भी रहती है जब तक निर्भागी चुगलखोर बीच में नहीं आता है। अर्थात् चुगलखोर चुगली करके संबंध खत्म कर देता है। अहो! चुगलखोर लोहार चुगल रूपी अति तीक्ष्ण कुल्हाड़ी हाथ में लेकर नित्यमेव पुरुषों का प्रेम रूपी काष्ठों को चीरता है अर्थात् परस्पर वैर करवाता है। अति डरावना, भयंकर जो चुगलखोर कुत्ता रूके बिना लोगों के पीठ पीछे भौंकते हमेशा कान को खाता है अर्थात् दूसरे के कान को भरता है अथवा दो हाथ कान पर रखकर 'मैं कुछ भी नहीं जानता
इस तरह बतलाता है। अथवा जैसे एक चुगलखोर तो सभी की चुगली करता है, परंतु कुत्ता उज्ज्वल वेष वाले, पड़ौसी, स्वामी, परिचित और भोजन देनेवाले को नहीं भौंकता है। (अर्थात् चुगलखोर से कुत्ता अच्छा) अथवा चुगलखोर सज्जनों के संयोग से भी गुणवान नहीं होता है, चंद्रमंडल के बीच में रहते हुए भी हिरण काला ही रहता है। यदि इस जन्म में एक ही पैशुन्य है तो अन्य दोष समूह से कोई प्रयोजन नहीं है, वह एक ही दोष उभय लोक को निष्फल कर देगा। जिसके कारण से जिसकी चुगली करने में आती है उसका अनर्थ होने में अनेकांत है उसका अनर्थ हो अथवा न भी हो, परंतु चुगलखोर का तो द्वेषभाव से अवश्य अनर्थ होता है। पैशुन्य से माया, असत्य, निःशूकता, दुर्जनता और निर्धन जीवन आदि अनेक दोष लगते हैं। दूसरे के मस्तक का छेदन करना अच्छा परंतु चुगली करना अच्छा नहीं है, क्योंकि-मस्तक छेदन में इतना दुःख नहीं होता जितना दुःख पैशुन्य द्वारा मन को अग्नि देने समान हमेशा होता है। पैशुन्य के समान अन्य महान पाप नहीं है, क्योंकि पैशुन्य करने से सामने वाला अन्य जहर से लिप्त बाण अथवा भाले से पीड़ित शरीरवाले के समान यावज्जीव दुःखपूर्वक जीता है। क्या चुगलखोर स्वामी घातक है? गुरु घातक है? अथवा अधर्माचारी है? नहीं, नहीं इनसे भी वह अधिक अधम है। पैशुन्य के दोष से सुबंधु मंत्री ने कष्ट को प्राप्त किया और उसके ऊपर पैशुन्य नहीं करने से चाणक्य ने सद्गति प्राप्त की ।।६३४०।। वह इस प्रकार :
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