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समाधि लाभ द्वार-पैशुन पाप स्थानक द्वार-सुबंधु मंत्री और चाणक्य की कथा
श्री संवेगरंगशाला
सुबंधु मंत्री और चाणक्य की कथा पाटलीपुत्र नगर में मौर्य वंश का जन्म हुआ, बिन्दुसार नाम का राजा था और उसका चाणक्य नाम का उत्तम मंत्री था। वह श्री जैनधर्म में रक्त चित्त वाला, औत्पातिकी आदि बुद्धि से युक्त और शासन प्रभावना में उद्यमशील बनकर, दिन व्यतीत करता था। एक दिन पूर्व में राज्य भ्रष्ट हुआ नंद राजा का सुबंधुं नामक मंत्री ने पूर्व वैर के कारण चाणक्य के दोष देखकर राजा को इस तरह कहा कि-हे देव! यद्यपि आप मुझे प्रसन्न या खिन्न दृष्टि से भी नहीं देखते हैं, फिर भी आपको हमें हितकर ही कहना चाहिए। चाणक्य मंत्री ने तुम्हारी माता को पेट चीरकर मार दी थी, तो इससे दूसरा आपका वैरी कौन हो सकता है? ऐसा सुनकर क्रोधित बने राजा ने अपनी धावमाता से पूछा तो उसने भी वैसे ही कहा, परंतु मूल से उसका कारण नहीं कहा। उस समय पर चाणक्य आया और राजा उसे देखकर शीघ्र ललाट पर भृकुटी चढ़ाकर विमुख हुआ। उस समय अहो! इस समय राजा की मर्यादा भ्रष्ट हुई है। इस तरह मेरा पराभव क्यों करता है? ऐसा सोचकर चाणक्य अपने घर गया, फिर घर का धन, पुत्र, प्रपौत्र आदि स्वजनों को देकर निपुण बुद्धि से उसने विचार किया कि-मेरे मंत्री पद की इच्छा से किसी चुगलखोर ने इस राजा को इस प्रकार क्रोधित किया है, अतः मैं ऐसा करूँ कि जिससे वह चिरकाल दुःख से पीड़ित होकर जीये। इस तरह सोचकर उसने श्रेष्ठ सुगंध वाला जहर मिलाकर चूर्णों को वासित किया और डब्बे में भर दिया तथा भोज पत्र में इस तरह लिखा कि-जो इस उत्तम चूर्ण को सूंघकर इन्द्रियों के अनुकूल विषयों का भोग करेगा वह यममंदिर में जायगा। और जो श्रेष्ठ वस्त्र, आभूषण, विलेपन आदि को, तलाई, दिव्य पुष्पों को भोगेगा तथा स्नान-श्रृंगार भी करेगा वह शीघ्र मरेगा। इस तरह चूर्ण के स्वरूप को बताने वाले भोजपत्र को भी उस चूर्ण में रखकर उस डब्बे को पेटी में रखा। उस पेटी को भी मजबूत कीलों से जोड़कर मुख्य कमरे में रखकर उसके दरवाजे पर मजबूत ताला लगाकर रखा। फिर स्वजनों से क्षमायाचना कर उनको जिन धर्म में लगाकर उसने अरण्य में जाकर गोकुल के स्थान पर इंगिनी अनशन को स्वीकार किया।
इसका मूल रहस्य जानकर धावमाता ने राजा से कहा कि-पिता से अधिक पूजनीय चाणक्य का पराभव क्यों किया? राजा ने कहा कि वह मेरी माता का घातक है। तब उसने कहा कि यदि तेरी माता को इसने न मारी होती तो तूं भी नहीं होता। क्योंकि तूं जब गर्भ में था, तब तेरे पिता के विष मिश्रित भोजन का कोर लेकर खाते ही जहर से व्याकूल होकर तेरी माता रानी मर गई और उसका मरण देखकर महानुभाव चाणक्य ने उसका पेट छुरी से चीरकर तुझे निकालकर बचाया है। इस तरह निकालते हुए भी तेरे मस्तक पर काले वर्ण वाला जहर का बिन्दु लगा, इस कारण से हे राजन्! तूं बिन्दुसार कहलाता है। यह सुनकर अति संताप को करते राजा सर्व आडम्बर सहित उसी समय चाणक्य के पास गया और राग मुक्त उस महात्मा को उपले के ढेर के ऊपर बैठे देखा। राजा ने उसे सर्व प्रकार से आदरपूर्वक नमस्कार करके अनेक बार क्षमा याचना की और कहा कि-आप नगर में पधारों और राज्य को संभालो! तब उसने कहा कि मैंने अनशन स्वीकार किया है और राग से मुक्त हुआ हूँ। चुगली के कड़वे फल को जानते हुए चाणक्य ने उस समय सुबंधु की कारस्तानी को जानते हुए भी उसने राजा को कुछ भी नहीं कहा। इसके बाद दो हाथ ललाट पर जोड़कर सुबंधु ने राजा से कहा कि-हे देव! मुझे आपकी आज्ञा हो तो मैं इनकी भक्ति करूँ। राजा की आज्ञा मिलते ही क्षुद्र बुद्धि वाले सुबंधु ने धूप जलाकर उसके अंगारे उपलों में डाले। राजा आदि सभी लोग अपने स्थान पर चले गये। फिर शुद्ध लेश्या में स्थिर रहा चाणक्य उस उपले की अग्नि से जल गया और देवलोक में देदीप्यमान शरीरवाला, महर्द्धिक देव हुआ। वह सुबंधु मंत्री उसके मरण से आनंद मनाने लगा।
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